प्रातःकाल सूर्य की सुहावनी सुनहरी धूप-में कलावती दोनों बेटों को जाँघों पर बैठा दूध और रोटी खिलाती थी। केदार बड़ा था, माधव छोटा। दोनों मुँह में कौर लिये, कई पग उछल-कूदकर फिर जाँघों पर आ बैठते और अपनी तोतली बोली में उस प्रार्थना की रट लगाते थे, जिसमें एक पुराने सुहृदय कवि ने किसी जाड़े के सताए हुए बालक के हृदयोद्गार को प्रकट किया है—
‘दैव-दैव, घाम करो, तुम्हारे बालक को लगता जाड़ा।’
माँ उन्हें चुमकारकर बुलाती और बड़े-बड़े कौर खिलाती। उसके हृदय में प्रेम की उमंग थी और नेत्रों में गर्व की झलक। दोनों भाई बड़े हुए। साथ-साथ गले में बाँहें डाले खेलते थे। केदार की बुद्धि चुस्त थी, माधव का शरीर। दोनों में इतना स्नेह था कि साथ-साथ पाठशाला जाते, साथ-साथ खाते और साथ-साथ ही रहते थे।
दोनों भाइयों का ब्याह हुआ। केदार की बहू चम्पा अमित भाषिणी और चंचला थी। माधव की बहू श्यामा साँवली सलोनी, रूपराशि की खानि थी। बड़ी ही मृदुभाषिणी, बड़ी ही सुशीला और शांत स्वभाव थी।
केदार चम्पा पर मोहे और माधव श्यामा पर रीझे। परन्तु कलावती का मन किसी से न मिला। वह दोनों से प्रसन्न और दोनों से अप्रसन्न थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा का बहुत अंश इस व्यर्थ के प्रयत्न में व्यय होता था कि चम्पा अपनी कार्यकुशलता का एक भाग श्यामा के शांत स्वभाव से बदल ले।
दोनों भाई संतानवान हुए। हरा-भरा वृक्ष खूब फैला और फलों से लद गया ! कुत्सित वृक्ष में केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीला-सा मुरझाया हुआ। किन्तु दोंनों अप्रसन्न थे। माधव को धन-सम्पत्ति की लालसा थी और केदार को संतान की अभिलाषा। भाग्य की इस कूटनीति ने शनैः-शनैः द्वेष का रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलता थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अनीति कभी-कभी कटु शब्दों में निकल जाती। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। परन्तु उसकी यह सहनशीलता चम्पा के क्रोध को शांत करने के बदले और बढ़ाती। यहाँ तक कि प्याला लबालब भर गया। हिरन भागने की राह न पाकर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा समकोण बनाने वाली रेखाओं की भाँति अलग हो गई। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, परन्तु भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।
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2
कई वर्ष बीत गए। दोनों भाई जो किसी समय एक ही पालथी पर बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही छाती से दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना कठिन हो गया। परन्तु कुल की साख में बट्टा न लगे, इसलिए ईर्ष्या और द्वेष की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की व्यर्थ चेष्टा की जाती थी। उन लोगों में अब भ्रात-स्नेह न था। केवल भाई के नाम की लाज थी। माँ अब भी जीवित थी, पर दोनों बेटों का वैमनस्य देखकर आँसू बहाया करती। हृदय में प्रेम था, पर नेत्रों में अभिमान न था। कुसुम वही था, परंतु वह छटा न थी।
दोनों भाई जब लड़के थे, तब एक को रोते देख, दूसरा भी रोने लगता था। तब वे नादान, बेसमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख, दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता ! वह समझदार और बुद्धिमान हो गए थे।
जब उन्हें अपने-पराये की पहचान न थी। उस समय यदि कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा जमीन पर लोट जाता, और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब यदि एक भाई को मृत्यु भी धमकाती, तो दूसरे के नेत्रों में आँसू न आते। अब उन्हें अपने-पराये की पहचान हो गई थी।
बेचारे माधव की दशा शोचनीय थी। खर्च अधिक था और आमदनी कम। उस पर कुल-मर्यादा का निर्वाह। हृदय चाहे रोए, पर होंठ हँसते रहें। हृदय चाहे मलिन हो, पर कपड़े मैले न हों। चार पुत्र थे, चार पुत्रियाँ और आवश्यक वस्तुएँ मोतियों के मोल। कुछ पाइयों की जमींदारी कहाँ तक सम्हालती ? लड़कों का ब्याह अपने बस की बात थी, पर लड़कियों का विवाह कैसे टल सकता था ? दो पाई जमीन पहली कन्या के विवाह की भेंट हो गई। उस पर भी बाराती बिना भात खाए आँगन से उठ गए। शेष दूसरी कन्या के विवाह में निकल गई। साल बाद तीसरी लड़की का विवाह हुआ, पेड़-पत्ते भी न बचे। हाँ, अबकी डाल भरपूर थी। परंतु दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है, जो मांस और कुत्ते में।
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3
इस कन्या का अभी गौना न हुआ था कि माधव पर दो साल के बकाया लगान का वारंट आ पहुँचा। कन्या के गहने गिरो (बंधक) रखे गए। गला छूटा। चम्पा इसी समय की ताक में थी। तुरंत नए-नए नातेदारों को सूचना दी, तुम लोग बेसुध बैठे हो, यहाँ गहनों का सफाया हुआ जाता है। दूसरे दिन एक नाई और दो ब्राह्मण माधव के दरवाजे पर आकर बैठ गए। बेचारे के गले में फाँसी पड़ गई। रुपये कहाँ से आएँ? न जमीन, न जायदाद, न बाग, न बगीचा। रहा विश्वास, वह कभी का उठ चुका था। अब यदि कोई संपत्ति थी, तो केवल वही दो कोठरियाँ, जिनमें उसने अपनी सारी आयु बितायी थी और उनका कोई ग्राहक न था। विलंब से नाक कटी जाती थी। विवश होकर केदार के पास आया और आँखों में आँसू भरे बोला—भैया, इस समय मैं बड़े संकट में हूँ, मेरी सहायता करो।
केदार ने उत्तर दिया— मद्धू ! आजकल मैं भी तंग हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ।
चम्पा अधिकारपूर्ण स्वर से बोली—अरे तो क्या इनके लिए भी तंग हो रहे हैं ? अलग भोजन करने से क्या इज्जत अलग हो जाएगी ?
केदार ने स्त्री की ओर कनखियों से ताककर कहा—नहीं, नहीं, मेरा यह प्रयोजन नहीं था। हाथ तंग है तो क्या, कोई न कोई प्रबंध किया ही जाएगा।
चम्पा ने माधव से पूछा—पाँच बीस, से कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थे न ? माधव ने उत्तर दिया—हाँ ! ब्याज सहित कोई सवा सौ रुपये होते हैं।
केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गए। चम्पा ने तत्त्व की बातचीत शुरू की—रुपया बहुत है, हमारे पास होता, तो कोई बात न थी, परंतु हमें भी दूसरे से दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाए-पढ़ाए रुपया देते नहीं।
माधव ने सोचा, यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गए थे, तुम्हारे दरवाजे क्यों आता ? बोला—लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या ? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है।
केदार और चम्पा ने एक दूसरे को मर्मभेदी नयनों से देखा और मन-ही-मन कहा—क्या आज सचमुच जीवन की प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी ? परंतु हृदय की यह उमंग मुँह तक आते-आते गंभीररूप धारण कर गई। चंपा बड़ी गंभीरता से बोली—घर पर तो कोई महाजन कदाचित ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवई में तो कोई सेंत में रहने वाला भी नहीं। फिर साझे की चीज ठहरी।
केदार डरे कि कहीं चंपा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले—एक महाजन से मेरी जान-पहचान है, वह कदाचित कहने-सुनने में आ जाय।
चम्पा ने गर्दन हिलाकर इस युक्ति की सराहना की और बोली—पर दो-तीन बीसी से अधिक मिलना कठिन है।
केदार ने जान पर खेलकर कहा—अरे, बहुत दबाने से चार बीसी हो जाएँगे और क्या ?
अबकी चम्पा ने तीव्रदृष्टि से केदार को देखा और अनमनी—सी होकर बोली—महाजन ऐसे अंधे नहीं होते।
माधव अपने भाई-भावज के इस गुप्त रहस्य को कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इतनी बुद्धि कहाँ से मिल गई। बोला—और रुपये कहाँ से आएँगे।
चम्पा चिढ़कर बोली—और रुपयों के लिए और फिक्र करो। सवा सौ रुपये इन दो कोठरियों के इस जन्म में कोई न देगा। चार बीसी चाहो, तो एक महाजन से दिला दूँ, लिखा-पढ़ी कर लो।
माधव इन रहस्यमय बातों से सशंक हो गया। उसे भय हुआ कि यह लोग मेरे साथ कोई गहरी चाल चल रहे हैं। दृढ़ता के साथ अड़कर बोला—और कौन-सी फिक्र करूँ? गहने होते तो कहता, लाओ रख दूँ। यहाँ तो कच्चा सूत भी नहीं है। जब बदनाम हुए तो क्या दस के लिए, क्या पचास के लिए, दोनों एक ही बात है। यदि घर बेचकर मेरा नाम रह जाय, तो यहाँ तक स्वीकार है; परन्तु घर भी बेचूँ और उस पर प्रतिष्ठा धूल में मिले, ऐसा मैं न करूँगा केवल नाम का ध्यान है, नहीं एक बार नहीं कर जाऊँ, तो मेरा कोई क्या करेगा ? और सच पूछो तो मुझे अपने नाम की कोई चिंता नहीं है। मुझे कौन जानता है ? संसार तो भैया को हँसेगा।
केदार का मुँह सूख गया। चम्पा भी चकरा गई ! वह बड़ी चतुर वाक् निपुण रमणी थी। उसे माधव-जैसे गँवार से ऐसी दृढ़ता की आशा न थी। उसकी ओर आदर से देखकर बोली—लाल कभी-कभी तुम भी लड़कों की सी बातें करते हो। भला, इस झोपड़ी पर कौन सौ रुपये निकालकर देगा ? तुम सवा सौ के बदले सौ ही दिलाओ, मैं आज ही अपना हिस्सा बेचती हूँ। उतनी ही मेरी भी तो है। घर पर तो तुमको वही चार बीस मिलेंगे। हाँ, और रुपयों का प्रबंध हम आप कर देंगे। इज्जत हमारी-तुम्हारी एक ही है, वह न जाने पाएगी। वह रुपया अलग खाते में चढ़ा लिया जाएगा।
माधव की इच्छाएँ पूरी हुईं। उसने मैदान मार लिया ! सोचने लगा कि मुझे तो रुपयों से काम है, चाहे एक नहीं, दस खाते में चढ़ा लो। रहा मकान, वह जीते-जी नहीं छोड़ेने का। प्रसन्न होकर चला। उसके जाने के बाद केदार और चंपा ने कपट भेष त्याग दिया और देर तक एक-दूसरे को इस सौदे का दोषी सिद्ध करते रहे। अंत में मन को इस तरह संतोष दिया को भोजन बहुत मधुर नहीं, किन्तु भर–कठौती तो है। घर, हाँ, देखेंगे कि श्यामा रानी इस घर में कैसे राज करती है ?
केदार के दरवाजे पर दो बैल खड़े हैं। इनमें कितनी संघशक्ति, कितनी मित्रता और कितनी प्रेम है। दोनों एक ही जुएं में चलते हैं बस इनमें इतना ही नाता है। किन्तु अभी कुछ दिन हुए, जब इनमें से एक चम्पा के मैके मँगनी गया था, तो दूसरे ने तीन दिन तक नाँद में मुँह नहीं डाला। परन्तु शोक, एक गोद के खेले भाई, एक छाती से दूध पीनेवाले आज इतने बेगाने हो रहे हैं कि एक घर में रहना भी नहीं चाहते।
4
प्रातःकाल था। केदार के द्वार पर गाँव के मुखिया और नंबरदार विराजमान थे। मुंशी दातादयाल अभिमान से चारपाई पर बैठे रेहन का मसविदा तैयार करने में लगे थे। बारंबार कलम बनाते और बारंबार खत रखते, पर खत की शान न सुधरती। केदार का मुखारविंद विकसित था और चम्पा फूली नहीं समाती थी। माधव कुम्हलाया और म्लान था।
मुखिया ने कहा भाई ऐसा हितू, न भाई ऐसा शत्रु। केदार ने छोटे भाई की लाज रख ली।
नंबरदार ने अनुमोदन किया— भाई हो तो ऐसा हो।
मुख्तार ने कहा— भाई, सपूतों का यही काम है।
दातादयाल ने पूछा— रेहन लिखने वाले का नाम ?
बड़े भाई बोले— माधव वल्द शिवदत्त।
‘और लिखवाने वाले का ?’
‘केदार वल्द शिवदत्त।’
माधव ने बड़े भाई की ओर चकित होकर देखा। आँखें डबडबा आयीं। केदार उसकी ओर न देख सका। नम्बरदार, मुखिया और मुख्तार भी विस्मित हुए। क्या केदार खुद ही रुपया दे रहा है ? बातचीत तो किसी साहूकार की थी। जब घर ही में रुपया मौजूद है, तो इस रेहननामे की आवश्यकता ही क्या थी ? भाई-भाई में इतना अविश्वास ! अरे, राम ! राम ! क्या माधव 80 रुपये को भी मँहगा है ! और यदि दबा भी बैठता, तो क्या रुपये पानी में चले जाते ?
सभी की आँखें सैन द्वारा परस्पर बातें करने लगीं, मानो आश्चर्य की अथाह नदी में नौकाएँ डगमगाने लगीं।
श्यामा दरवाजे की चौखट पर खड़ी थी। वह सदा केदार की प्रतिष्ठा करती थी, परन्तु आज केवल लोक-रीति ने उसे अपने जेठ को आड़े हाथों में लेने से रोका।
बूढ़ी अम्मा ने सुना, तो सूखी नदी उमड़ आयी। उसने एक बार आकाश की ओर देखा और माथा ठोक लिया।
तब उसे उस दिन का स्मरण हुआ, जब ऐसा ही सुहावना सुनहरा प्रभात था और दो प्यारे-प्यारे बच्चे उसकी गोद में बैठे हुए उछल-कूदकर दूध-रोटी खाते थे। उस समय माता के नेत्रों में कितना अभिमान था, हृदय में कितनी उमंग और कितना उत्साह!
परन्तु आज, आह ! आज नयनों में लज्जा है और हृदय में शोक–संताप उसने पृथ्वी की ओर देखकर कातर स्वर में कहा—हे नारायण ! क्या ऐसे पुत्रों को मेरी ही कोख में जन्म लेना था !
झूमर :: भीष्म साहनी [Jhoomar; Hindi Story by Bhishm Sahni]
खुले मैदान में अर्जुनदास कुर्सी पर बैठा सुस्ता रहा था। मैदान में धूल में उड़ रही थी, पाँवों को मच्छर काट रहे थे, उधर शाम के साए उतरने लगे थे और अर्जुनदास का मन खिन्न-सा होने लगा था। https://website-quotation.zmu.in/
जिन बातों ने जिंदगी भर परेशान नहीं किया था, वे जीवन के इस चरण में पहुँचने पर अंदर ही अंदर से गाहे-बगाहे कचोटने-कुरेदने लगती थी। अनबुझी-सी उदासी, मन पर छाने लगती थी। कभी-कभी मन में सवाल उठता, अगर फिर से जिंदगी जीने को मिल जाती तो उसे मैं कैसे जीता? क्या करता, क्या नहीं करता? यह तय कर पाने के लिए भी मन में उत्सुकता नहीं थी। थका-थका सा महसूस करने लगा था।
यों तो ऐसे सवाल ही निरर्थक होते हैं पर उनके बारे में सोचने के लिए भी मन में उत्साह चाहिए, जो इस समय उसमें नहीं था। जो कुछ जीवन में आज तक करता आया हूँ शायद फिर से वही कुछ करने लगूँगा, पर ज्यादा समझदारी के साथ, दाएँ-बाएँ देख कर, सोच-सूझकर, अंधाधुंध भावुकता की रौ में बह कर कुछ नहीं करूँगा। अपना हानि-लाभ भी सोच कर और इतनी जल्दबाजी में भी नहीं जितनी जल्दबाजी में मैं अपनी जिंदगी के फैसले करता रहा हूँ। सोचते-सोचते ही उसने अपने कंधे बिचका दिए। क्या जिंदगी के अहम फैसले कभी सोच-समझ कर भी किए जाते हैं? https://mithilesh2020.tumblr.com/
साए और अधिक गहराने लगे थे। मैदान में बत्तियाँ जल उठी थीं। लंबे-चौड़े मैदान के एक ओर मंच खड़ा किया गया था। मंच पर रोशनियाँ, माइक्रोफोन आदि फिट किए जा रहे थे, मंच ऊँचा था लगभग छह फुट ऊँचा रहा होगा। मंच के नीचे, दाएँ हाथ को कनात लगा कर कलाकारों के लिए वेशभूषा कक्ष बना दिया गया था। अभी से कनात के पीछे से तबला हारमोनियम बजने की आवाजें आने लगी थी। युवक-युवतियाँ नाटक से पहले पूर्वाभ्यास करने लगे थे। अपनी-अपनी वेशभूषा में सजने लगे थे।
मंच को देखने पर उसके मन में पहले जैसी हिलोर नहीं उठी थी। इसी पुराने ढर्रे पर अभी भी हमारा रंगमंच चल रहा है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई है, हम अभी भी वहीं पर खड़े हैं जहाँ पचास साल पहले खड़े थे। फटीचर-सा मंच खड़ा किया करते थे। बिजली की रोशनी नहीं मिलती तो गैस के लैंप उठा लाते। रात पड़ जाती तो वहीं मंच पर अभिनय के बाद सो भी जाते थे। तब भी न जेब में पैसा था न कहीं से चंदा उगाह पाते थे। बस, खेल दिखाओ, दर्शकों के सामने झोली फैलाओ और खर्च निकाल लो। कोई दुवन्नी डाल देता, कोई चवन्नी, कभी कोई दर्शक अधिक भावुक हो उठता तो चमकता रुपए का सिक्का डाल देता। मैं और मेरे साथी, सब कुछ भूले हुए इसी काम में मस्त थे। इसी काम में सारी जवानी खप गई। न जाने कैसे खप गई। उन दिनों भी अर्जुनदास के पाँवों में फटे हुए सस्ते चप्पल हुआ करते थे, आज भी वैसे ही चप्पल है, केवल अब जिंदगी ढलने लगी है। बहुत से साथी काल प्रवाह में बहते हुए न जाने किस ठौर जा लगे हैं। अब वह स्वयं बहुत कम अभिनय कर पाता है, साँस फूलने लगती है, आवाज बैठ जाती है, माथे पर पसीना आ जाता है और टाँगें काँपने-थरथराने लगती है।
मैदान में युवक-युवतियाँ अब अधिक संख्या में इकठ्ठा होने लगे थे। कुछेक बड़ी उम्र के संयोजकों को छोड़ कर बहुत कम लोग इसे जानते-पहचानते थे। कुछ लोग दूर से इसकी ओर इशारा करते। वह रंगमंच का खलीफा बन गया था, छोटा-मोटा नेता। इस रंगोत्सव में उसे पुरस्कार देने के लिए बुलाया गया था। आज से नाटय-समारोह शुरू होने जा रहा था। संयोजक उसकी खातिरदारी कर रहे थे। सब कुछ था, पर मन में वह उछाह नहीं था, जो कभी रहा करता था।
समारोह आरंभ होने में अभी देर थी। अब इस तरह के कार्यक्रम अर्जुनदास से निभते भी नहीं थे। नौ बजे का वक्त देते हैं, दस बजे शुरू करते हैं। दर्शक लोग भोजन करने के बाद, पान चबाते, टहलते हुए आएँगे गप्पे हाँकते। कहीं कोई उतावली नहीं होगी, कोई समय का ध्यान नहीं होगा। यहाँ पर वक्त की पाबंदी कोई अर्थ नहीं रखती। किसी से पूछो, नाटक कब शुरू होगा? तो कहेंगे, यही नौ-दस बजे। समाप्त कब होगा? यही ग्यारह-बारह बजे। अध्यक्ष महोदय कब आएँगे? बस आते ही होंगे। वह जानता था कि नाटक अधकचरा होगा। मंच की साज-सज्जा से ही उसका नौसिखुआपन झलक रहा था। इसके मन में टीस उठने का एक कारण यह भी रहा था। अभिनय और कला कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है पर हमारा यह रंगमंच अभी भी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। आज रंगमंच में प्रविधि के स्तर पर एक विशेष निपुणता आ गई है। रोशनी का प्रयोग मंच की सज्जा, वेश-भूषा, चुस्ती-मुस्तैदी, वह नहीं कि धूल भरे मैदान में - जहाँ पानी का छिड़काव कराने तक के लिए पैसे संयोजकों की जेब में न हों - और फटे-पुराने पर्दे और कनातें और मुडी-निचुडी दरियाँ, और जहाँ हाथों से, खींच-खींच कर पर्दा गिराया जा रहा हो, और वह भी पूरी तरह स्टेज को ढक नहीं पाए और पर्दे के पीछे, इधर से उधर भागते अभिनेता नजर आ रहे हों। पर ऐसे ही रंगमंच पर अर्जुनदास ने जिंदगी बिता दी थी। https://mithilesh2020.tumblr.com/
वह जानता था नाटक बेढंगा होगा, न ढंग की, वेशभूषा, प्रांपटर की आवाज पर्दे के पीछे से एक्टर की आवाज से ज्यादा ऊँची सुनाई देगी। केवल संवादों के बल पर नाटक चलेगा, या फिर गीतों के बल पर, वे असरदार हुए तो नाटक जम जाएगा, वरना वह भी नहीं जमेगा। युवा अभिनेता पंक्तियाँ भूलेंगे, स्टेज पर डोलते रहेंगे, एक-दूसरे का रास्ता काटते रहेंगे। तुम लोग केवल भावना के बल पर नाटक का अभिप्राय दर्शकों के दिल में उतारना चाहते हो, अब यह नहीं चलेगा। लोग नफासत माँगते हैं, और कला और अभिनय का ऊँचा स्तर और मंच कौशल। अनगढ नाटक के दिन बीत गए यहाँ लोग आएँगे, सैंकड़ों की संख्या में भले ही लोग इकठ्ठा हो जाएँगे, पर वह तुम्हारे नाटक के कारण नहीं वे तफरीह चाहते हैं, जिसे तुम मुफ्त में जुटा रहे हो, इसलिए आएँगे। तुम्हारी कला देखने नहीं आएँगे, रात को खाना खा चुकने के बाद पान चबाते हुए, यहाँ घड़ी दो घड़ी मन बहलाने आएँगे। वह भी इसलिए कि तुम अपने खेल मुफ्त में दिखाते हो, टिकट लगाते तो कोई देखने नहीं आता।
आज से दसियों साल पहले भी यही स्थिति थी। एक जगह पर नाटक खेलते फिर वहाँ से भागते हुए बगल में वेशभूषा का बुक्का दबाए किसी दूसरी बस्ती में नाटक खेलने पहुँच जाते। सिर पर जुनून तारी था, वरना धैर्य से सोच-विचार करते थे समझ जाते कि इस तरह यह गाड़ी दूर तक नहीं जा पाएगी कि लोग थक जाएँगे, नाटक खेलनेवाले थक जाएँगे, दर्शक उब जाएँगे।
आज ही प्रातः कुछेक पुराने रंगकर्मियों की चौकड़ी जमी थी। वे सब युवा नाटय समारोह को एक तरह से आशीर्वाद देने आए थे। उनमें अर्जुनदास भी था। अर्जुनदास की पत्नी कमला भी थी। दो-एक अन्य स्त्रियाँ भी थीं जो किसी जमाने में इनके साथ गान मंडली आदि में भाग लिया करती थीं। सभी मिल बैठे गप्प लड़ा रहे थे। पुराने दिनों को याद कर रहे थे। अपने-अपने अनुभव, किस्से सुना रहे थे, पुराना उत्साह मानो फिर से जाग उठा था। तरह-तरह के अनूठे अनुभवों, जोखिम भरे अनुभवों की चर्चा चल रही थी।
याद है? जब कि बस्ती में शिखरिणी खेला था? अर्जुनदास सुना रहा था, रात इतनी देर से शो खत्म हुआ कि सामान समेटते-समेटते एक बज गया। सभी बसें बंद, गाड़ियाँ बंद, हमारे कुछ साथी तो शो खत्म होते ही निकल गए थे, वे तो घरों को पहुँच गए, रह गया मैं और रमेश। हम रात को वहीं मंच पर पसर गए। जाते भी कहाँ? सुबह उठ कर सामान बाँधा, एक बैलगाड़ी भाड़े पर ली, सारा सामान लादा और सामान के अंबार के ऊपर हम दोनों बैठ गए, कहते-कहते अर्जुनदास की आँखों में पहले-सी चमक आ गई, और बैलगाड़ी धीरे-धीरे एक सड़क से दूसरी सड़क और हम सामान के ऊपर बैठे गीत गा रहे थे, एक गीत के बाद दूसरा गीत, बैलगाड़ी रेंगती हुई, सुबह दस बजे की निकली दोपहर चार बजे कार्यालय के सामने जा कर रुकी। सारा दिन इसी में निकल गया पर उसी शाम शो भी हुआ, और शो के बाद हम लोग घर पहुँचे। ऐसे भी दिन थे
इस पर कोई दूसरा रंगकर्मी अपनी आपबीती सुनाने जा ही रहा था जब अर्जुनदास की बगल में बैठा उसकी पत्नी बोली, तुम तो दिन भर बैलगाड़ी पर बैठे गीत गा सकते थे, शहर भर की सैर कर सकते थे, तुम्हें मैं जो मिली हुई थी, घर में पिसनेवाली।
कमला ने कहा तो मजाक में कहने के बाद स्वयं हँस भी दी, पर इससे अर्जुनदास सिमट कर चुप हो गया।
पंजाब का एक वयोवृद्ध साथी सुना रहा था, एक नाटक था, कुर्सी, तुम्हें याद होगा। उस नाटक पर सरकार ने रोक लगा दी थी। पर हमने वह नाटक अजीब ढंग से खेला। एक जगह खेलते तो फौरन ही बाद, बस में बैठ कर अगले शहर जा पहुँचते, वहाँ खेलते और फिर अगले शहर के लिए रवाना हो जाते। पुलिस पीछे-पीछे, हम आगे-आगे पुलिस की चर्चा चली तो अर्जुनदास को अपना एक और किस्सा याद हो आया -
मेरे खिलाफ वारंट तो नहीं था। पर मुझे शहर में घुसने की इजाजत नहीं थी। पर वहाँ हमारी केंद्रीय कार्यकारिणी की बैठक होने वाली थी। मुझे वहाँ पहुँचना था, मैं लुक-छिप कर पहुँच गया। एक स्कूल की ऊपर वाली मंजिल पर मीटिंग चल रही थी। अब मैं मीटिंग में अपनी बात कह ही रहा था जब खबर मिली कि बाहर पुलिस पहुँच गई है। मैं समझ गया कि मुझे ही पकड़ने आई होगी। मैंने अपनी बात खत्म की, अभी बहस चल ही रही थी कि मैं चुपचाप उठा और कमरे के बाहर आ गया। स्कूल का गलियारा लाँघ कर मैं पिछवाड़े की ओर जा पहुँचा। स्कूल के पीछे कोई मंदिर था। उस वक्त शाम के साए उतरने लगे थे और मंदिर में सायंकाल की आरती चल रही थी। घंटियाँ बज रही थीं। गर्मी के दिन थे। मैं ऊपर बरामदे में खड़ा था। मैंने बुश्शर्ट उतारी और उसकी दोनों आस्तीनें कमर में बाँध ली और उसकी छत पर से कूद पड़ा और सीधा मंदिर के आँगन में जा उतरा। जमीन कच्ची थी, मुझे चोट नहीं आई। फिर मैंने वैसे ही भक्तों की तरह, बुश्शर्ट को कमर में से उतार कर कंधे पर रखा और धीरे-धीरे टहलता हुआ बाहर निकल आया। मंदिर के फाटक के ऐन सामने सड़क पर एक सिपाही खड़ा था। उससे थोड़ा हट कर दाईं ओर को, एक और सिपाही तैनात था। दोनों के हाथ में लाठियाँ थी, बहुत से भक्त आ जा रहे थे, सिपाही ने मेरी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। मैं बाहर आ गया और दाएँ हाथ को टहलता हुआ आगे बढ़ने लगा। ज्यों ही मैं अँधेरे में पहुँचा कि मैं सरपट दौड़ने लगा, ऐसा भागा कि शहर के दूसरे कोने में ही जा कर दम लिया जहाँ हरीश, मेरा मित्र रहता था
इस जोखिम भरी घटना के ब्योरे को सुनते हुए भी उसकी पत्नी के मन मे क्षोभ-सा उठा था। उसे भी वह दिन याद आ गया था। उसे याद आ गया था कि उसी दिन उनकी बिटिया को खसरा निकला हुआ था और उसे तेज बुखार था, और थकी-मादी वह बच्ची के सिरहाने बैठा घड़ियाँ गिन रही थी कि कब उसका पति घर लौटेगा और बेटी के उपचार का कोई प्रबंध कर पाएगा।
जिस मस्ती में अर्जुनदास का लड़कपन और जवानी बीते थे उसका आकर्षण अब कुछ मंद पड़ चुका था, स्वयं अर्जुनदास की नजर मंद पड़ चुकी थी। इतना वक्त इस काम को दिया, क्या तुक थी।
उसके इस जुनून की आलोचना, उसकी पत्नी, उन बीते दिनों में किया करती थीं। वह सुन लिया करता था और सिर झटक दिया करता था या हँस दिया करता था, क्योंकि उन दिनों उसे इस काम की सार्थकता में गहरा विश्वास था। पर अब, वर्षों बाद उसका विश्वास शिथिल पड़ने लगा था, और उसके साथ उसका आग्रह भी मंद पड़ने लगा था, और उसी समय से उसके अंदर एक प्रकार की अपराध भावना भी बढ़ने लगी थी, कि वह मात्र अपनी आदर्शवादिता और जुनून में खोया रहा है, कि वह अभी भी व्यवहार के धरातल पर नहीं उतरा, अपने दायित्व नहीं निभाए, एक तरह से कहो तो 'स्वांत:सुखाय ही जीता रहा है।
उसकी नजर फिर मंच पर पड़ी। अब वहाँ पहले से ज्यादा गहमागहमी थी। बार-बार माइक्रोफोन पर कुछ न कुछ बोला जा रहा था। माइक्रोफोन को टेस्ट किया जा रहा था। पर्दे पर बार-बार खींचा-खोला जा रहा था। बहुत से बच्चे और लौंडे-लपाड़े मंच के आसपास मँडराए लगे थे। एक ऊँचा-लंबा, छरहरे शरीर वाला युवक, हाथ में एक कागज उठाए, कभी एक ओर तो कभी दूसरी ओर मैदान में भागता फिर रहा था, बार-बार माथे पर से बालों की लट को हटाता हुआ, वह शायद कार्यक्रम का संयोजक था, कागज पर खेलने वालों के नाम होंगे, जरूरी कामों की फेहरिस्त होगी, पर उसके चेहरे पर ऐसा भाव था मानो सारे देश का संचालन उसी के हाथ में हो, जैसे उसके हाथ में पकड़ा कागज का टुकड़ा, कोई सूची न हो कर कोई ऐतिहासिक दस्तावेज हो। अर्जुनदास को उसकी भागदौड़ में अपनी भागदौड़ की झलक नजर आ रही थी। कुछ बरसों बाद शायद इसका विश्वास भी शिथिल पड़ने लगेगा। इस समय तो अगर इसके हाथ से कागज का टुकड़ा गिर जाए तो मानों पृथ्वी की गति थम जाएगी। उसकी ओर देखते हुए अर्जुनदास के अंदर विचित्र-सी भावनाएँ उठ रही थीं, कभी स्फूर्ति की लहर दौड़ जाती। कभी संशय डोलने लगता, कभी उसके उत्साह में उसे बचकानापन नजर आने लगता।
और अब युवक, हाथ में कागज का फड़का उठाए अर्जुनदास की ओर बढ़ता आ रहा था। शायद रंगमंच की रूप-सज्जा तैयार हो गई है और खेल शुरू होने वाला है। संभवतः युवक उसे कोई सूचना देने या बुलाने आ रहा है। चलिए, देर आए दुरुस्त आए, ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। ग्यारह बजे तक भी खेल समाप्त हो जाए तो जल्दी छुटकारा मिल जाएगा। https://mithilesh2020.tumblr.com/
लड़का पास आ गया था। अर्जुनदास ने कुर्सी पर से टाँगें हटा लीं। पर युवक खड़ा रहा। बुजुर्ग के सामने उसे कुर्सी पर बैठने में झेंप हो रही थी।
कहो बरखुरदार, सब तैयारी हो गई? अब पर्दा उठने वाला है?
नहीं साहिब, हमारे दो कलाकार अभी तक नहीं पहुँच पाए हैं। उन्हें स से आना है, उन्हें पहुँचने में देर हो गई है।
अर्जुनदास के मन में खीझ उठी पर वह चुप रहा। स्वयं अतिथि होने के कारण कुछ कहते नहीं बनता था। ओखली में सिर दिया तो रोना क्या।
क्या वे स से आ रहे हैं?
जी!
वह तो बहुत दूर है।
जी पर बसें, हर आधे घंटे के बाद चलती रहती हैं। उन्हें अब तक पहुँच जाना चाहिए था।
अर्जुनदास चुप रहा। यह सोच कर कि वे दोनों युवक इस आयोजन में भाग ले पाने के लिए इतनी दूर से बसों में धक्के खाते पहुँचेंगे, दो घंटे के शो के लिए दस घंटे का सफर तय करके आएँगे और फिर कल लौट जाएँगे। यह मौका शिकायत करने का नहीं था।
अर्जुनदास ने युवक की ओर देखा। बड़ा प्यारा-सा लड़का था, मसें भीग रही थीं, चेहरे पर जवानी की लुनाई थी, आखों में स्वच्छ-सी चमक जिसका भास सायंकाल के इस झुटपुटे में भी हो जाता था।
बैठो। अर्जुनदास ने खाली कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा।
लड़का कुछ सकुचाया, फिर बैठ गया।
सर, आपसे एक अनुरोध है, आप मेरी सहायता करें।
क्या बात है?
सर, आप मेरे पिताजी को समझाएँ। वह नहीं चाहते कि मैं रंगमंच का काम करूँ।
वह क्या चाहते हैं?
वह चाहते हैं मैं नौकरी करूँ, कोई सरकारी नौकरी। वह इसे फिजूल काम समझते हैं, आप समझाएँगे तो वह समझ जाएँगे।
अर्जुनदास ने हँस कर कहा, मैं क्या समझाऊँगा। मैं तो बाहर का आदमी हूँ। मैं तुम्हारी परिस्थितियों को तो नहीं जानता हूँ।
नहीं सर आपने बहुत काम किया है आपको जिंदगी भर का अनुभव है।
अर्जुनदास को अपनी जवानी के दिन याद आए। वह दिन भी जिस दिन उसने स्वयं रंगमंच के साथ नाता जोड़ा था। पर वह तो किसी से परामर्श करने अथवा सहायता लेने नहीं गया था। उसने तो न पत्नी से पूछा था, न घर वालों से, और इस काम में कूद पड़ा था। इसने कम से कम अपने पिता की बात सुनी तो। इतनी समझदारी तो की।
अभी तुम व्यस्त हो, तुम्हारा शो हो जाए अभी मैं यहीं पर हूँ। बाद में मिल-बैठ कर बात करेंगे। यह मसला सुलझाना इतना आसान नहीं है। https://website-quotation.zmu.in/
अच्छा सर, मैं कल आपसे मिलूँगा।
और वह उठ कर, कदम बढाता रंगमंच की ओर चला गया।
इस युवक ने अर्जुनदास की पुरानी यादों को और ज्यादा कुरेद दिया था।
रंगमंच के साथ जुड़ने से पहले वह देश के स्वतंत्रता संग्राम की ओर उन्मुख हुआ था। न जाने वह भी कैसे हुआ। शायद इसलिए कि वातावरण में अजीब सी धड़कन पाई जाती थी, अजीब सा तनाव और आत्मोत्सर्ग की भावना। दिल में भावनाओं के ज्वार से उठते थे और एक दिन वह खादी का कुर्ता-पायजामा पहन कर घर के बाहर निकल आया था। बात मामूली-सी थी, खादी का कुर्ता-पायजामा पहनने में क्या रखा है, लेकिन उसकी नजर में यह देश-सेवियों का पहरावा था। विद्रोह का प्रतीक था। इसे पहनना देश के विराट आंदोलन के साथ जुड़ना था, उसे बार-बार रोमांच हो रहा था, उसे लग रहा था जैसे वह किसी घेरे को तोड़ कर बाहर निकल आया है, और ठाठें मारते किसी महानगर में कूद गया है।
रंगमंच की ओर भी वह कुछ इसी तरह से ही आकृष्ट हुआ था। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा था और बंगाल से कलाकर्मियों का एक दल उसके शहर में आया था। वे लोग बंगाल के संकट को नाटक-संगीत द्वारा प्रस्तुत कर रहे थे। उस दिन वह शाम को घूमने के लिए कैंटोन्मेंट की तरफ निकल गया था। आम तौर पर वह सैर करने के लिए खेतों की ओर निकल जाया करता था, उस दिन अनायास ही उसके पाँव इस ओर को उठ गए थे। उसे इस अभिनय की जानकारी भी नहीं थी। घूम चुकने पर वह घर की ओर लौट रहा था जब एक सिनेमाघर के सामने उसे छोटी सी भीड़ खड़ी नजर आई थी और अर्जुनदास कुतूहलवश उस ओर चला गया था।
पर्दा उठने पर एक वयोवृद्ध व्यक्ति, कोई अभिनेता, जो वयोवृद्ध व्यक्ति की भूमिका निभा रहा था, पीठ झुकी हुई, सफेद दाढी, हाथ में हरीकेन लैंप उठाए मंच पर आया था और काँपती आवाज में बोला था, सुनोगे? अभागे बंगाल की कहानी सुनोगे?
और अर्जुनदास को जैसे बिजली छू गई थी। और उसके बाद जितने दृश्य सामने आए थे सभी उद्वेलित करने वाले, सभी उसके दिल को मथते रहे थे। लगभग डेढ़ घंटे तक कार्यक्रम चलता रहा था, अनेक गीत थे, वृंदगान के रूप में, कुछ हिंदुस्तानी में, कुछ बाँग्ला में, सभी हृदयस्पर्शी, दिल को गहरे में छूने वाले, वह पहली बार ऐसा नाटक देख रहा था जो अन्य नाटकों से भिन्न था। मंच-सज्जा न के बराबर थी, अनगढ़-सी पर हाल में बैठे लोग मंत्र-मुग्ध से देखे जा रहे थे। दृश्य श्रृंखलाबध्द भी नहीं थे। पर उनमें कुछ था जो सीधा दिल में उतरता था। https://mithilesh2020.tumblr.com/
और अंत में उसी वयोवृद्ध ने मंच पर से उतर कर दुर्भिक्ष-पीड़ितों के लिए झोली फैलाई थी और झोली फैलाए दर्शकों की पाँतों के सामने आने लगा था। तभी अर्जुनदास के आगे वाली सीट पर बैठा एक भावविह्वल युवती ने अपने कानों में से झिलमिलाते सोने के झूमर उतार कर वयोवृद्ध की झोली में डाल दिए थे, और उसी क्षण मानो अर्जुनदास के जीवन का काँटा भी बदल गया था।
तब भी उसने किसी से परामर्श नहीं किया था और रंगकर्मियों की टोली में शामिल हो गया था।
यह मेरे स्वभाव का ही दोष रहा होगा कि मैं भावोद्वेग में अपना संतुलन खो बैठता हूँ और बिना हानि-लाभ पर विचार किए बिना आगा-पीछा देखे, कूद पड़ता हूँ। पर यह स्वभाव का दोष केवल मेरा ही तो नहीं रहा। अनेकानेक लोगों का रहा है और वे कितने निखरे-निखरे व्यक्तित्व वाले लोग थे। कितने सच्चे, कितने ईमानदार।
उसकी आँखों के सामने दूर अतीत का किसी जलसे का दृश्य घूम गया। तब वह बहुत छोटा सा था, स्कूल में पढ़ता था। न जाने वह आदमी कौन था, उन दिनों नमक का कानून तोड़ने का आंदोलन चल रहा था। भरे जलसे में, जहाँ मंच पर गैस का लैंप जल रहा था, और समूचे जलसे के लिए यही एक रोशनी थी, एक आदमी मंच पर चढ़ कर आया था। छोटी सी सिर पर पगड़ी, पतली-पतली सी मूँछें, हाथ उठा कर उसने एक शेर पढ़ा था :
वह देख सितारा टूटा है,
मगरब का नसीब फूटा है।
और उसके साथ ही जेब में से एक कागज की पुड़िया निकाल लाया था, और गैस की रोशनी में सभी को दिखाते हुए ऊँची आवाज में बोला था, साहिबान, यह नमक की पुड़िया है। आज मैंने नमक कानून तोड़ा है। यह मेरी बापू को छोटी-सी भेंट है। छोटी नदी के किनारे पानी को सुखा कर नमक तैयार किया गया है। वंदे मातरम! कह कर मंच पर से उतर गया था। हॉल तालियों से गूँज उठा था। श्रोताओं के आगे वाली पांत में पुलिस के तीन बावर्दी अफसर कुर्सियों पर बैठे थे और भीड़ के पीछे मैदान में ही एक सिरे पर पुलिस की सींखचों वाली गाड़ी खड़ी थी। जलसा अभी खत्म ही हुआ था कि उसे हथकड़ी लगा दी गई थी और उसे पुलिस की गाड़ी में धकेल कर बंद कर दिया गया था और देर तक जब तक बंद गाड़ी दूर नहीं चली गई, उसके नारे सुनाई देते रहे थे, इंकलाब जिंदाबाद! बोल महात्मा गांधी की जय। और वह जैसे ही लोगों की आँखों के सामने आया था वैसे ही ओझल भी हो गया था।
क्या मालूम उस रोज अर्जुनदास, बंगाल के दुर्भिक्ष से जुड़े अभिनय को देखने हॉल में अचानक प्रवेश नहीं कर जाता तो कभी इस रास्ते आता ही नहीं। क्या मालूम हॉल में अर्जुनदास के सामने बैठा युवती ने अगर सोने के झूमर उतार कर उस अभिनेता की झोली में नहीं डाल दिए होते तो उसकी जिंदगी का काँटा नहीं बदलता। कौन जाने? क्या मालूम जिंदगी का काँटा बदलने के लिए कोई और कारण बन जाता।
उसके कानों में फिर से उसकी पत्नी का वह वाक्य गूँज गया। जिसे वह अकसर कहा करती थी, तुम्हें ब्याह नहीं करना चाहिए था। तुम जैसे लोग ब्याह करके अपने घर वालों को भी दुखी करते हैं और खुद भी दुखी होते हैं
जिंदगी में अनेक अवसरों पर उसकी पत्नी उसे झिंझोड़ती रही थी। अपने बच्चों का वास्ता डालती रही थी। सुबह से शाम तक घर के कामों में पिसती रही थी पर अर्जुनदास के सिर पर तो जुनून सवार था। बंबई में कांग्रेस का अधिवेशन था। अर्जुनदास को तो जाना ही जाना था। तुम भी चलो। उसने अपनी पत्नी से कहा। पर छोटे-छोटे दो बच्चों को छोड़ कर कैसे जाती? देश सेवा का काम तो मर्दों के लिए बना है, तुम ही जाओ। मैं घर में ठीक हूँ। और अर्जुनदास बुक्का उठा कर चला गया था। हर बार ऐसा ही होता था। बुक्का उठा कर चल देता था।
अर्जुनदास को धनोपार्जन के लिए और तो कोई धंधा नहीं सूझा था, उसने पुस्तकों की दुकान खोल ली थी। यह काम रंगकर्म के आड़े नहीं आता था। कभी-कभी छोटी-मोटी पूँजी लगा कर पुस्तकें प्रकाशित भी कर देता। पर दुकान खोल देना एक बात है, उसे चलाना, बिल्कुल दूसरी बात। लोग-बाग मुफ्त में पुस्तकें उठा कर ले जाते। अपने पैसे लगा कर पुस्तक छापता, पुस्तक-विक्रेता महीनों तक अदायगी नहीं करते। दुकान पर मित्रों, रंगकर्मियों का ताँता लगा रहता। सभी अर्जुनदास की जेब से चाय पीते और गप्पें हाँकते, कुछ लोग अपनी घटिया किताबें छपवा लेते। उसी दुकान में ही गान-मंडली की रिहर्सलें होती, ऊँची-ऊँची तानें उठतीं।
कमला को पता चलता तो मन ही मन कुढती रहती, अंत में जब बच्चे कुछ बड़े हुए तो वह स्वयं दुकान पर जा कर बैठने लगी थी। इससे कुछ तो इस महादानी पर अंकुश लगेगा, चाय की प्यालियाँ कुछ तो कम होंगी, और इसके निगोड़े साथियों को कुछ तो शर्म आएगी। पर दुकान पर बैठने का मतलब था, घर पर भी पिसो और अब दुकान पर भी। तभी कमला ने निश्चय किया कि वह किसी स्कूल में नौकरी कर लेगी। जिस दिन उसे एक प्राइमरी स्कूल में नौकरी मिली और उसने दुकान पर लड्डू बाँटें, उसी दिन अपने पति से यह कह भी दिया, अब तुम स्वतंत्र हो, जो मन में आए करो। और ऐन इसके महीने भर बाद अर्जुनदास जेलखाने में पहुँच गया था।
बंबई में जहाजियों की बगावत हुई थी। जगह-जगह पर विरोध-प्रदर्शन हुए थे और पकड़-धकड़ शुरू हो गई थी। कमला ने दुकान को ताला लगाया और घर चली आई। सारा रास्ता मन को समझाती रही : उसे पकड़े तो जाना ही था। वह कुछ भी नहीं करता तो भी सरकार इसे पकड़ ले जाती।
पूरे दो साल तक अर्जुनदास जेल में रहा था। और पूरे दो साल तक कमला, प्रति सप्ताह उसे मिलने पाँच मील दूर, जेलखाने जाती रही थी। जीवन की कठिनाइयों को देखने के अलग-अलग नजरिए होते हैं। कमला ने अर्जुनदास की सरगर्मियों को स्वीकार कर लिया था। वह जानती थी कि वह उन्हें छोड़ेगा नहीं। इसी ढर्रे पर उसका जीवन चलेगा। जब कठिनाई बढ़ जाती तो वह रो देती। पर मन ही मन उसने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया था और नियति को स्वीकारने का एक परिणाम यह भी हुआ था कि कमला की भावनाओं में से कटुता और झल्लाहट कम होने लगी थी, और कभी-कभी उसके मन में अपने प्रति सहानुभूति-सी भी उठने लगी थी। करता है, पर कोई बुरा काम तो नहीं करता, अपनी भूख-प्यास भी तो भूले हुए है।
जब अर्जुनदास जेल से छूट कर आया तो वह वामपंथी बन कर लौटा था। जेल के अंदर कुछ ऐसे देशभक्त भी थे जो मार्क्स और लेनिन की चर्चा किया करते थे, अर्जुनदास उनकी बातें सुनता रहता, उनकी दी हुई किताबें पढ़ता। कहने को तो वह भी अनायास ही हुआ था। अगर उसी जेल में दर्शनसिंह कैद हो कर नहीं आता तो अर्जुनदास पर मार्क्सवादी विचारों का रंग नहीं चढता। पर ये सब कहने की बातें हैं। होता वही है जो हो कर रहता है।
आजादी आई। देशवासियों के हाथ में सत्ता की बागडोर आई। उसके अनेक साथियों ने हवा का रुख देख लिया और समझ गए कि अब जेलयात्रा वाले आंदोलन नहीं चलेंगे। अर्जुनदास के बहुत से पुरानी साथी छिटक गए। पर अर्जुनदास तो यह कहता फिरता था कि स्वतंत्रता-आंदोलन अभी समाप्त नहीं हुआ है बल्कि अब तो निर्माण कार्य होगा न्यायसंगत समाज की स्थापना के लिए संघर्ष होगा।
मतलब कि अर्जुनदास की गाड़ी पहले की ही भाँति चलती रही। उसकी चाल बेढंगी ही रही। उन्हीं दिनों दिल्ली की एक सड़क पर उसे देवराज मिला था। देवराज आकाशवाणी में नौकरी करता था और अच्छे ओहदे पर था। उसने उसे आकाशवाणी में नौकरी करता था और अच्छे ओहदे पर था। उसने उसे आकाशवाणी में नौकरी कर लेने का सुझाव दिया था। देश का बँटवारा हो गया था और शरणार्थी सड़कों पर मारे-मारे घूम रहे थे। https://mithilesh2020.tumblr.com/
बहुत सी नौकरियाँ निकली हैं। कहो तो बात करूँ? देवराज ने कहा था।
और अर्जुनदास ने देवराज की ओर यों देखा था मानो देवराज ने उसका अपमान किया हो। वह और नौकरी? इस पर सरकारी नौकरी? देवराज के मन में यह ख्याल ही कैसे आया था। उसी शाम उसकी गान मंडली ने कनाट प्लेस के बड़े मैदान में अपना रंगारंग प्रोग्राम प्रस्तुत करना था और नए गीत पेश करना था। यह तो वह यों ही चाय का प्याला पीने एक ढाबे में चला आया था। देवराज को इस बात का ख्याल ही कैसे आया कि मैं नौकरी के लिए दर्ख्वास्त दूँगा और उसने देवराज को नाटक देखने का न्यौता दिया था। बहुत दिन बाद, जब एक दिन, उसने डींग हाँकते हुए इस घटना की चर्चा अपनी पत्नी से की थी तो उसने सुन कर मुँह फेर लिया था, तुम्हें घर परिवार की चिंता होती तो तुम नौकरी करते। तुम तो आदर्शवाद के घोड़े पर सवार तीसमारखाँ बने घूम रहे थे। जमीन पर तुम्हारे पाँव ही नहीं टिकते थे। फिर तनिक संयत हो कर बोली, उस वक्त रेडियो की नौकरी कर ली होती तो इस वक्त क्या मालूम तुम डायरेक्टर होते, पंडारा रोड पर तुम्हें बंगला मिला होता, बाद में पेंशन मिलती, मैं भी कुछ सीख-पढ़ लेती।
उन्हीं दिनों अनेक अन्य अनुभव भी हुए। आजादी के बाद कुछ ही सालों में बड़ा अंतर आ गया था। उसके अनेक साथी छिटक कर अलग हो गए थे। वैद्य रमानाथ का औषधालय चल निकला। हंसराज को ठेके पर ठेके मिलने लगे। मोहनसिंह विदेशी दूतावासों के साथ संपर्क बढाने लगा, उनके पेंफलैट छापता और देखते ही देखते उसने अर्जुनदास के ही मुहल्ले में एक दुमंजिला मकान खरीद लिया। वारे-न्यारे होने लगे।
उसकी आँखों के सामने बोधराज का चेहरा घूम गया। बोधराज स्वतंत्रता संग्राम के विलक्षण सेनानी रह चुके थे। जीवन के सोलह वर्ष जेलों में काट चुके थे, पर आजादी के बाद एक ही झटके से मानों घूरे पर फेंक दिए गए थे। आजादी के बाद एक नई पौध उभरी थी - सियासतदानों की। सियासतदान उभरने लगे थे और देशभक्त घूरे पर फेंक दिए गए थे। आजादी के बाद पाँचेक साल में ही, वह आदमी जो कभी घर-घर जा कर स्वतंत्रता-संग्राम के लिए लोगों को उत्प्रेरित किया करता था, अब अपने मुहल्ले में पड़ा सड रहा था, देश को कहीं भी उसकी जरूरत नहीं रह गई थी। और काम तो क्या करता, लोगों के घर-घर जा कर तंबाकूनोशी के नुकसान समझाता फिरता था और उनसे वचन लेता फिरता था कि वे सिगरेट नहीं पिएँगे।
हुआ यह कि हंसराज - जो आजादी के बाद ठेके लेने लगा था, बोधराज को राजधानी में ले गया था। वहाँ वह उन्हें किसी केंद्रीय नेता के पास ले गया। केंद्रीय नेता बड़े आदर-सत्कार के साथ बोधराज से मिले थे, हंसराज को धन्यवाद कहा था कि उसके सौजन्य से वह एक अनन्य देशसेवी के दर्शन कर पाए हैं। हंसराज ने ही यह सुझाव रखा कि एक समाज कल्याण योजना बनाई जाए जिसकी अध्यक्षता बोधराज जी करें। अभी बात चल ही रही थी और बोधराज प्रस्ताव की तह तक पहुँचने की कोशिश कर ही रहे थे कि उनके हाथ में कलम थमा दी गई थी। और वह किसी कागज पर हस्ताक्षर कर रहे थे।
यह तो बहुत बाद में उन्हें चेत हुआ कि हंसराज उनके साथ दाँव खेल गया है। उन्हीं का नाम ले कर उन्हीं के नाम पर पचास हजार रुपए का अनुदान हड़प गया है। यह उन्हें तब पता चला जब साल भर बाद, सरकार की ओर से बोधराज को एक पत्र मिला कि अनुदान का हिसाब भेजें, और बोधराज भौंचक्के रह गए थे, और बोधराज की वह रगड़ाई हुई थी कि दिन को भी उन्हें तारे नजर आने लगे थे।
वहीं स्वतंत्रता सेनानी बोधराज अब लोगों के सिगरेट छुड़वाता फिर रहा था।
ऐसे ही धक्के अर्जुनदास के दिल और दिमाग को उन दिनों बार-बार लगते रहे थे और वह पिटा-पिटा सा महसूस करने लगा था।
एक दिन उसे भी एक पत्र मिला। जिस समय डाकिया चिठ्ठी ले कर आया उस समय कमला घर पर नहीं थी। वास्तव में यह पत्र न हो कर एक निमंत्रण था। स्वतंत्रता सेनानियों का कोई जमाव राजधानी में होने जा रहा था और उसमें एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी के नाते उसे आमंत्रित किया जा रहा था। पत्र के साथ एक फॉर्म भेजा गया था जिसे भरकर सम्मेलन के कार्यालय को भेजना था। फॉर्म में यह पूछा गया था कि स्वतंत्रता संघर्ष में आपका क्या योगदान रहा है। उनके प्रश्न थे : कितने दिन जेल काटी, कभी भूख हड़ताल की, जेल के अंदर, जेल के बाहर, कभी किसी लाठी चार्ज में जख्मी हुए, किसी गोली-कांड में, रचनात्मक कार्य में कैसा योगदान रहा, कभी पदाधिकारी रहे तो, रहे हों तो किस समिति के स्थानीय, जिला अथवा प्रादेशिक? आदि आदि। लगता था इस फॉर्म में दी गई सूचनाओं के आधार पर सरकार स्वतंत्रता आंदोलन का कोई वृहद इतिहास-ग्रंथ छापेगी।
पत्र देख चुकने पर उसके मन की पहली प्रतिक्रिया तो यही हुई कि चलो, देर से ही सही, सरकार को स्वतंत्रता सेनानियों की सुधि तो आई। उनकी निष्ठा, उनके काम पर उनकी कुर्बानियों की ओर किसी का ध्यान तो गया।
कमला अभी बाहर से लौटी नहीं थी, और अर्जुनदास हाथ में पत्र उठाए, खाट की पाटी पर बैठा अपने योगदान पर विचार कर रहा था। वह कमला को यह पत्र और फॉर्म दोनों दिखाना चाहता था। और उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था। कमला के इंतजार में वह बार-बार बरामदे में जा कर खिड़की में से दाएँ-बाएँ बाहर देखता रहा था। और गली की ओर देखते हुए पहली बार उसका ध्यान इस ओर गया था कि मुहल्ला अब भले लोगों के रहने लायक नहीं रह गया है। कमला की बहुत दिनों से शिकायत रही थी कि मुहल्ले में तरह-तरह के लोग आ गए थे। शराब और जुए के अड्डे बन गए थे, माल लादने वाले ट्रकों के ड्राइवर जो सुनने में आया था, तस्करी भी करने लगे थे। कमला कहा करती थी, बेटी बड़ी हो रही है, अब हमारा यहाँ पर रहना ठीक नहीं। पर जवाब से अर्जुनदास तुनक उठा करता था।
हम लोग शरीफ हैं तो ये लोग बदमाश है, क्या? हाथ से काम करने वाले लोग कभी बुरे नहीं होते। इस बात को समझ लो।
पर आज पहली बार उसे लगा था कि नहीं, मुहल्ला बदनाम बस्ती सा बनता जा रहा है। इसमें अब रहना ठीक नहीं, बच्चों पर बुरे संस्कार पड़ेंगे।
और तभी उसे कमला सड़क पर आती नजर आई थी और उस पर आँख पड़ते ही उसका दिल भर आया था। पत्नी को घर के अंदर देखना एक बात है, और उसे सड़क पर अकेले चुपचाप चलते हुए देखना बिल्कुल दूसरी बात। तब उसके प्रति अपनेपन की भावना अधिक जागती है। तब उसमें स्त्री सुलभ कमनीयता भी होती है और अपनत्व का भाव भी। तभी अर्जुनदास को इस बात का भी भास हुआ कि उसकी पत्नी को उसके साथ रहते हुए बहुत कुछ सहना पड़ा है कि वह उसे कोई भी सुख-सुविधा नहीं दे पाया। कमला के प्रति भावना का ज्वार-सा उसके अंदर उठा था।
जब कमला अंदर पहुँची, हाथ-मुँह धोए, दो घूँट पानी पिया और दुपट्टे से हाथ-मुँह पोंछती हुई उसके पास आ कर बैठा तो उसने बात चलाई।
सरकार की तरफ से चिठ्ठी आई है।
तुम्हें? उसने तनिक हैरानी से पूछा।
हाँ, मुझे।
क्या लिखा है?
बुलाया है।
तुम्हें बुलाया है? सरकार को तुम्हारी क्या जरूरत पड़ गई?
आजादी की वर्षगाँठ है, बहुत से लोगों को बुलाया है जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लिया था राजधानी में। https://mithilesh2020.tumblr.com/
वहाँ तुम लोगों का अचार डालेंगे क्या? और कमला हँस दी थी।
कमला की लापरवाही-सी हँसी को ले कर अर्जुनदास को तनिक झेंप हुई थी। वह स्वयं सारा वक्त सरकार की आलोचना करने लगा था, पर यह पत्र मिलने पर उसे अपनी विशिष्टता का कुछ-कुछ भास होने लगा था।
जाओगे?
हाँ, जाएँगे, क्यों नहीं, जाएँगे। आजादी की सालगिरह है। फिर फॉर्म की ओर इशारा करते हुए बोला, यह फॉर्म भेजा है। और फॉर्म कमला की ओर बढा दिया।
कमला देर तक बैठा उसे पढ़ती रही। फिर बोली, यह किसलिए है? क्या देशभक्तिों को उनकी देशसेवा का मुआवजा मिलेगा? और लापरवाही से फॉर्म पति को लौटा दिया।
मुआवजे का ख्याल अर्जुनदास को नहीं आया था। मुमकिन है सरकार कुछ मुआवजा देने की ही सोच रही हो। बात अनोखी-सी थी पर देर तक उसके मन में बार-बार उठती रही।
वह राजधानी गया था। उसके शहर से नौ और व्यक्ति भी गए थे। राजधानी पहुँचने पर वह बेहद उत्साहित हुआ था। स्वतंत्रता सेनानियों का कैंप लगा था। तंबू ही तंबू थे। पूरी की पूरी बस्ती उठ खड़ी हुई थी। अर्जुनदास पुलक-पुलक उठा था। मेरी भी इस महायज्ञ में अल्प-सी आहुति रही है, वह मन ही मन बार-बार कहता। राजधानी में रैली क्या रही थी मानो मानवता का सैलाब उमड़ पड़ा था। उसका मन चाहा इस जनप्रवाह में डूब जाए, उसे बार-बार रोमांच हो आता। मैं इस मिट्टी की उपज हूँ और अपने देश की इसी मिट्टी में मिल जाना चाहता हूँ। इसी प्रकार के उद्गार उसके दिल में हिलोरे ले रहे थे। https://website-quotation.zmu.in/
और यहाँ पहुँच कर एक और निर्णय उसने भावावेश में कर डाला था।
बात मुआवजे को ले कर ही थी। कमला को फार्म का आशय ठीक ही सूझा था।
जब से अर्जुनदास राजधानी पहुँचा था, कैंप में जगह-जगह सरकारी भत्ते की ही चर्चा सुन रहा था। सरकार प्रत्येक स्वतंत्रता सेनानी का मासिक भत्ता बाँधने जा रही थी, ऐसा सुनने में आया था। चारो ओर उसी की चर्चा चल रही थी। तरह-तरह की टिप्पणियाँ सुनने को मिलतीं। उसके अपने शहर से नौ और देशसेवी आए थे।
क्या सभी को एक जैसा भत्ता देंगे? इसमें क्या तुक है? जिसने तीन महीने जेल काटी है, उसे भी उतना ही भत्ता मिले जितना उस आदमी को जिसने ग्यारह साल जेल काटी है? कोई कह रहा था। इस पर किसी ने हँस कर जोड़ा, नहीं सबको तोल-तोल कर मिठाई बाँटेंगे, कुर्बानी के मुताबिक।
क्या सूत कातना भी कुर्बानी माना जाएगा? प्रभात फेरी भी? तामीरी काम भी? इसे भी फॉर्म में लिखूँ?
उन्हीं के तंबू में एक बार झगड़ा उठ खड़ा हुआ था। किसी ने कहा, अब मैं नाम नहीं लेना चाहता लेकिन रोशन लाल ने कौन-सी जेल काटी है? एक जुलूस में उसने भाग लिया था जिस पर लाठी चार्ज हुआ था। मैंने अपनी आँखों से रोशन लाल को वहाँ भागते हुए देखा था, भाग कर हलवाई के तख्ते के नीचे छिप गया था। वह भी यहाँ भत्ता लेने पहुँचा हुआ है।
इस पर एक और ने जोड़ा, ऐसे लोग भी भत्ता माँगेंगे जो कांग्रेस में काम भी करते थे और अंग्रेज सरकार की मुखबरी भी करते थे।
कुर्बानी की तसदीक कौन करेगा?
कोई कह रहा था, कौन दरयाफ्त करने जाएगा कि मैंने तीन महीने जेल काटी है या तीन साल? भत्ता माँगने वालों में ऐसे लोग भी होंगे जो झूठी दर्ख्वास्तें दे कर भत्ता मंजूर करवा लेंगे।
इस पर कोई आदमी बिफर कर बोला था, और जो मर गए, जो फाँसी चढ़ गए? उन्हें क्या मिलेगा?
दो आदमियों को उसने फुसफुसाते हुए भी सुना था।
दर्ख्वास्त तो दे दो, जो मन में आए भर दो, तसदीक करवा लेंगे। तसदीक करने वाला भी मिल जाएगा, क्या मुश्किल है।
इसी तरह एक आदमी घबराया हुआ, चिंतित-सा कह रहा था : मैंने तो जेल, सियालकोट में काटी है, और वह पाकिस्तान में चला गया है। मैं तसदीक किससे करवाऊँगा
तरह-तरह के टिप्पण सुनता रहा था और उत्तरोत्तर अटपटा महसूस करता रहा था। कहीं कुछ घट रहा था जो उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
नतीजा यह हुआ कि वह कार्यालय में अपना फॉर्म दिए बिना घर लौट आया था।
और जब घर लौट कर आया और पत्नी को सारी वार्ता कह सुनाई तो भावावेश में बोला, मैंने भत्ते के लिए दर्ख्वास्त नहीं दी। यह मेरी देशसेवा का अपमान नहीं है क्या? क्या मैं जेल इसलिए गया था कि एक दिन मैं उसके लिए भत्ता माँगूँगा?
कमला चुप रही थी। वह न तो निराश हुई थी न ही आश्वस्त, केवल मुस्करा कर सिर हिला दिया था, अगर तुम दर्ख्वास्त दे कर आते तो मैं जरूर हैरान होती। उसने कहा था और वह अपने काम में लग गई थी।
यह बात भी धीरे-धीरे आई-गई हो गई थी, अर्जुनदास को इसका खेद भी नहीं था, वह इसे भूल भी चुका था, पर कहीं पर एक हलका-सा बोझ उसकी छाती पर छोड़ गई थी।
बाद में बहुत से लोगों को भत्ता मिला। महँगाई बढ़ रही थी, इस छोटे से भत्ते से निश्चय ही लोगों को लाभ पहुँचा था, पर घर पर इसकी चर्चा बंद हो गई थी, न कभी अर्जुनदास ने की, न कभी कमला ने।
राजधानी से लौटते समय एक और अटपटा-सा अनुभव अर्जुनदास को हुआ था, जिसने निश्चय ही उसे विचलित किया था। उसे लगा था जैसे कुछ घट रहा है जो उसकी पकड़ में नहीं आ रहा जैसे कोई चीज पटरी पर से उतर गई हो।
राजधानी से लौटते समय रेलगाड़ी खचाखच भरी थी। उसके डिब्बे में उसके अपने शहर के देशवासियों के अतिरिक्त बहुत से वयोवृद्ध देशभक्त बैठे थे। किसी को कहीं पर उतरना था, किसी को दूसरे स्टेशन पर। जब गाड़ी चली तो प्लेटफॉर्म पर नारे गूँज उठे। वातावरण में फिर से उत्तेजना और देशभक्ति की लहर दौड़ गई। अर्जुनदास भी इससे अछूता नहीं रहा। लगा पहले वाला वक्त फिर से लौट आया है।
जब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी तो डिब्बे में बैठे बहुत से वयोवृद्ध देशभक्त एक आवाज हो कर गाने लगे :
जरा वी लगन आजादी दी
लग गई जिन्हां दे मन विच्च!
और मजनूँ वण फिरदे ने
हर सहरा हर वन दे विच्च!
कुछ लोग सुर में गा रहे थे। कुछ बेसुरे थे, कुछेक की आवाज सधी हुई, कुछेक की खरखराती। कोई पंचम में, कोई सप्तम में, कुछेक को खाँसी आ गई, पर मस्ती में सभी के सिर हिल रहे थे, सभी वज्द में थे।
दूसरी बार जब गीत की दूसरी पंक्ति गाई गई :
लग गई जिन्हा दे मन दे विच्च!
तो डिब्बे में कहीं से हँसने, मसखरी करने की आवाज आई :
वि च च च!
ओ बाबू, यह विच्च क्या हुआ? कहीं से ठहाका फूटा।
सचमुच इस विच्च शब्द से बड़ी मजाकिया स्थिति बन गई थी। दूसरी बार जब देशभक्तिों ने वही पंक्ति दोहराई, हो गई जिन्हां दे मन दे विच्च!
तो चार-पाँच मनचले डिब्बे में एक ओर को बैठे हुए एक साथ बोल उठे, विच्च और फिर ठहाका हुआ।
अब की बार भी देशभक्तों ने विशेष ध्यान नहीं दिया पर फिर अगली पंक्ति के अंत में यही शब्द आया।
ओह मजनूँ बण फिरदे ने
हर सहरा, हर बन दे विच्च!
तो अब की बार पूरा डिब्बा गूँज उठा : विच्च!
अर्जुनदास मन ही मन बौखला उठा। तमतमाते चेहरे के साथ उठ खड़ा हुआ।
आपको शर्म आनी चाहिए देशभक्ति के गीत का आप मजाक उड़ा रहे हैं?
इस पर चार-पाँच नौजवान फिर बोल उठे, विच्च!
और फिर ठहाका हुआ।
पर अर्जुनदास तर्जनी हिला-हिला कर गुस्से से बोलने लगा, आपने शर्म हया बेच खाई है? ये लोग जो यहाँ बैठे हैं, सब देशभक्त हैं, इन्होंने कुर्बानियाँ दी हैं, जेलें काटी हैं, देश आजाद हुआ तो इनके बल पर और आज...
अर्जुनदास का वाक्य अभी पूरा नहीं हुआ था कि फिर से कोई मनचला चहक उठा, विच्च!
रेलगाड़ी आगे बढ़ती जा रही थी। अर्जुनदास मन मसोस कर बैठ गया। सारा मजा किरकिरा हो गया था। त्याग और आत्मोत्सर्ग का जो माहौल इस गीत से बनने लगा था, वह छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ लोगों पर अभी भी वज्द तारी था। उनमें से एक ने फिर से कोई इंकलाबी गीत गाना शुरू कर दिया :
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में हैं।
कुछ देर के लिए तो डिब्बे में चुप्पी छा गई। लोग ध्यान से सुनने लगे। अर्जुनदास ने भी मन ही मन कहा, क्यों नहीं सुनेंगे इस गीत को तो देश का दुश्मन भी सिर झुका कर सुनेगा। यह गीत लिखने वाला तो स्वयं फाँसी के तख्त पर झूल गया था।
पर अर्जुनदास भूल कर रहा था। मनचले फिर से खी-खी करने लगे थे। एक ने फिर से विच्च चिल्ला कर कहा। दूसरे ने गीत के गंभीर स्वर की नकल उतारते हुए कहा, हाय, मार डाला! तीसरे ने दिल पर हाथ रख कर कहा, कुंद छुरी से जबह कर डाला! और फिर से ठहाके लगने लगे।
अर्जुनदास को अभी भी समझ लेना चाहिए था कि बीते काल के माहौल को फिर से पकड़ पाने का प्रयास, उसे फिर से जीवित कर पाने का प्रयास विफल रहेगा, कि उनकी मानसिकता पकड़ नहीं पा रही है, कि उनका कालखंड समय के प्रबल प्रवाह में कब का डूब चुका है।
राजधानी से लौट कर अर्जुनदास अपनी नई गान मंडली संगठित करने में जुट गया था। बेशक राजधानी के उस दौरे से से धक्का लगा था पर वह बिल्कुल अप्रत्याशित भी नहीं था। पिछले दौर की अपनी माँगे थीं, आज के दौर की अपनी माँगे हैं। अपनी भावुकता भरी यादों के कारण तो वह पिछले दौर से चिपटा नहीं रह सकता था।
उसके मन में कभी-कभी जरूर सवाल उठता : क्या मैं दिग्भ्रमित हो गया हूँ? क्या सचमुच मैं आदर्शवाद के हवाई घोड़े पर सवार इधर-उधर भटक रहा हूँ? क्या वे लोग जो आजादी मिलने के बाद अपने पैर जमाने के लिए ठेके और लाइसेंस हथियाने लगे थे, ज्यादा समझदार थे जो हवा का रुख पहचानते थे? पर अर्जुनदास का मन नहीं मानता था कि वह भूल कर रहा है।
अर्जुनदास की गाड़ी पहले की ही भाँति चलती रही, अभी भी दुकान थी, प्रकाशन गृह था। पर अब उसमें समाजवाद का समर्थन तथा प्रचार करने वाली पुस्तकें अधिक छपती थीं, वाम कवियों के संग्रह छपते थे। अर्जुनदास सन 45 के नाविक विद्रोह के बाद जब जेल से छूट कर आया था तो मार्क्सवादी विचारों का रंग उस पर गहरा हो गया था। जेल के अंदर कुछ ऐसे देशभक्त भी थे जो मार्क्स और लेनिन की चर्चा किया करते थे। अर्जुनदास उनकी बातें सुनता रहता, उन्होंने कुछ साहित्य पढ़ने को दिया। उसे भी वह बड़े चाव से पढ़ता रहा था।
अर्जुनदास पहले की तुलना में और ज्यादा कर्मठ और उत्साही हो गया था। उधर गान मंडली भी बदल गई थी। नए-नए युवक युवतियाँ उसमें आ गए थे, स्फूर्ति और उत्साह पाए जाने लगे थे। अमरदास उन्हीं में से था। हाथ पसार कर ऐसी तान छेड़ता कि सारा पंडाल गूँज उठता। सच तो यह है कि अब जलसों-जुलूसों के मात्र देशभक्ति के अथवा गांधी-नेहरू के प्रति श्रद्धा के गीत बहुत जमते भी नहीं थे। भले ही स्वर योजना कितनी ही सुरीली क्यों न हो। मात्र भारत माता का गौरवगान दिल को छूता नहीं था, झिंझोड़ता नहीं था।
अर्जुनदास की दुकान और प्रकाशन गृह पहले ही तरह घिसट रहे थे। न दो कौड़ी की कमाई आजादी के पहले हुई थी, न दो कौड़ी की कमाई आजादी के बाद हो रही थी। पर अपने ढर्रे पर अर्जुनदास के पाँव फिर भी नहीं डगमगाए थे। अब वह हर बात का आर्थिक-सामाजिक कारण निकाल लेता और संतुष्ट हो जाता। यदि पत्नी के दिल में अभी भी अच्छे रहन-सहन की चाह है तो इसलिए कि बचपन में उसका लालन-पालन मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। और मध्यवर्ग वह वर्ग है जो सदा धन-ऐश्वर्य को प्राथमिकता देता है, आदि आदि।
पत्नी की माँगे इतनी बड़ी और असाध्य नहीं थी। पर अर्जुनदास की धृष्टता उनके आड़े आती रही थी। आदर्शवाद ने उसे अंदर से कड़ा बना दिया था वरना क्या था, वह ऐसे घर में रहना चाहती थी जिसके आगे छोटा सा आँगन हो, जिसमें वह बेल-बूटे उगा सके। या कि उनका घर किसी सँकरे बाजार में न हो कर किसी खुले इलाके में हो। इसके पिता छोटे सरकारी अफसर रहे थे, इसलिए उनका रहन-सहन अधिक सुचारु और करीने वाला था, समय पर भोजन वह भी मेज पर, साफ-सुथरे कपड़े, हर चीज अपनी जगह पर, घर में कहीं भी बेतरतीबी नहीं थी, बड़ा सुचारु सुव्यवस्थित जीवन था।
पर अर्जुनदास को इसमें भी, अंग्रेजियत की बू आया करती थी। सुव्ववस्थित रहन-सहन की इन विशिष्टताओं को भी वह अंग्रेजियत का नाम दिया करता था। एक बार यह वह जमाना था जब शादी के कुछ ही साल बाद वह सक्रिय रूप से रंगमंच पर काम करने लगा था। वे दोनों किसी रेलवे स्टेशन पर उतरे थे और कुछ फल खरीद कर साथ में ले लेना चाहते थे। उसकी पत्नी आम खरीदना चाहती थी जबकि वह खरबूजा लेने के हक में था। खरबूजे की तुलना में उसकी पत्नी को आम ज्यादा पसंद था और जब उसने आम लेने पर इसरार किया तो वह तुनक उठा था। वह आम इसलिए लेना चाहती है क्योंकि आम ज्यादा महँगा फल है, उसे ऊँचे दर्जे के लोग खाते हैं, जबकि खरबूजा आम आदमी का फल है। अंत में वह चुप हो गई थी और उसने खरबूजा लेना ही मान लिया था, लेकिन उसे यह तर्क सुन कर बड़ा अचंभा हुआ था।
मैंने कब कहा है आम बड़े आदमियों का फल है। और खरबूजा छोटे आदमियों का? यह तुम कैसी बातें करने लग जाते हो? और वह रो पड़ी थी।
आज इस छोटी सी घटना को याद करके उसका मन आत्म-ग्लानि से भर उठता था। पर उन दिनों उसे इसका कोई क्षोभ नहीं हुआ था।
जिंदगी इसी तरह हिचकोले खाती यहाँ तक पहुँची थी।
जमाना बीतता गया था। न तो अर्जुनदास की अपनी दिनचर्या बदली थी न पत्नी की। किताबों की कमाई में वृद्धि तो असंभव थी, हाँ, पत्नी की जोड़-तोड़ से नौका डूबने से बची रही। वह स्कूल में भी पढ़ाती रही और दुकान का काम भी देखती रही। घर बना रहा, बेटी बड़ी हो गई, उसकी शादी भी हो गई। बेटा जहीन निकला उसे राजनीति से तो चिढ़ थी, पर किताबों के माहौल में पला था इसलिए उसकी जिज्ञासा बनी रही और वह अपनी नौका अलग से ठेल ले जाने में सफल हो गया।
अधेड उम्र तक पहुँचते-पहुँचते, हर आए दिन विचित्र अनुभव होते रहे थे। उनकी बेटी उनके आदर्शवाद की खिल्ली उड़ाने लगी थी।(वैसे ही जैसे, बरसों पहले रेलगाड़ी के सफर में, मनचले युवक देशभक्तों के गीत की खिल्ली उड़ाते रहते थे।) बेटी को, या तो मन-ही-मन अपनी माँ के साथ हमदर्दी थी कि उसके पिता ने उसकी माँ को परेशान किया था और इसके लिए वह उसे क्षमा नहीं कर पा रही थी। या यही नहीं, उसकी मूल आपत्ति उसकी मान्यताओं, उसकी आदर्शवादिता के प्रति थी, जिसमें उसका कोई विश्वास नहीं था। उसकी बातें सुनते हुए, अर्जुनदास हताश तो नहीं होता था - हर युग के अपने ध्येय अपने आदर्श होते हैं - उसे अचंभा इस बात का होता था कि उसकी आदर्शवादिता उसकी बेटी को कहीं पर भी छूती तक नहीं थी। बस बस, पिताजी, सुन लिया, बहुत सुन लिया वह उसका मुँह बंद करने के लिए खीझ कर कहती और उठ कर चली जाती थी।
बेटे ने भी कुछ बरस बाद ऐसा ही रुख अपनाया था। जब बी.ए. की पढ़ाई खत्म कर चुका तो एक दिन बाप से तुनक कर बोला, न आपको कोई पूछता है, न जानता है, आप मेरी मदद क्या करेंगे?
जहाँ धन का अभाव हो वहाँ जिंदगी आए दिन थपेड़े मारती रहती है, छोटे-मोटे थपेड़े तो यों ही पड़ते रहते हैं, पर बड़ा धक्का तभी लगा जब पहले एक फिर दूसरा बच्चा, हाथ से निकल गए थे। https://website-quotation.zmu.in/
और जब पति-पत्नी वृद्धावस्था में प्रवेश कर रहे थे तो पहली बार अर्जुनदास को इस बात का भास होने लगा था कि उसका आदर्शवाद जो रोशनी की लौ की तरह उसका पथ प्रदर्शन करता रहा था, कुछ-कुछ मंद पड़ने लगा और यह सवाल बार-बार उसके मन में उठने लगा था। क्या मैंने अपनी जिंदगी नासमझी में व्यतीत की है? यदि मैं फिर से जन्म ले कर आऊँ तो क्या फिर से ऐसा ही जीवन व्यतीत करना चाहूँगा?
मैदान में बैठा वह अपने से यही प्रश्न पूछ रहा था और उसे कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल रहा था। बैठे-बैठे ही वह बुदबुदाया।
जिस दिल पे मुझको नाज था,
वह दिल नहीं रहा।
तभी रंगमंच की ओर घंटी की आवाज सुनाई दी। अर्जुनदास मानों तंद्रा से जागा। मैदान में अच्छी-खासी भीड़ जमा थी। रोशनी कम थी, केवल कुछ खंभों पर ही तारें जोड़ कर रोशनी के कुमकुमे लगाए गए थे, वह भी मद्धम से। कार्यक्रम आरंभ होने वाला था।
सहसा अर्जुनदास को चेत हुआ, कार्यक्रम के बाद युवक उसके पास आएगा, मार्गदर्शन के लिए, मैं उससे क्या कहूँगा? क्या मैं उससे कहूँगा कि बेटा, कूद जाओ, दिल का रास्ता ही सीधा रास्ता होता है या मैं उससे कहूँगा कि जो निर्णय करो, सोच-विचार कर करो, अपनी स्थिति पर विचार करके, अपने दायित्वों पर भी।
उसकी आँखों के सामने युवक का चेहरा उभर आया, ऊँचा-लंबा कद छरहरा बदन, मसें भीगी हुईं, स्वच्छ उत्साह भरी आँखें, अनछुआ व्यक्तित्व, कहीं किसी थपेड़े की छाया नहीं, न ही किसी संघर्ष का तनाव। उत्साह ही उत्साह, उत्साह और उत्सुकता। आज वह उस स्थल पर खड़ा है जहाँ से उसकी जीवनयात्रा आरंभ होगी। https://mithilesh2020.tumblr.com/
मैं उससे क्या कहूँगा? उसे कहूँ कि प्रत्येक ध्येय की एक उम्र होती है, वह उस समय तक जीवित रहता है और लोगों को उत्प्रेरित करता रहता है जब तक उसके चरितार्थ किए जाने की संभावना बनी रहती है। जब वह संभावना समाप्त हो जाती है तो उस ध्येय की प्रासंगिकता भी समाप्त हो जाती है, यदि एक बार पता चल जाए कि वह जीवन की संभावनाओं से दूर हो गया है तो उसकी सार्थकता समाप्त हो जाती है।
पर क्या वह समझ पाएगा? और क्या सचमुच इस युवक के ध्येय की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? क्या सचमुच स्थितियाँ बदल गई हैं और ध्येय की सार्थकता मंद पड़ गई है? कहीं ऐसा तो नहीं - अर्जुनदास ने मन ही मन कहा - कि मैं अपनी कमजोरी को आदर्शों-ध्येयों पर थोप रहा हूँ? यह समझ रहा हूँ कि जिन आदर्शों का दामन पकड़ कर मैं दसियों साल पहले इस रास्ते पर आया था वे अपनी सार्थकता खो चुके हैं। वास्तव में अपने जीवन की विकट स्थितियों को मैं सँभाल नहीं पाया, अपने निजी विरोधाभासों को मैं देख नहीं पाया, और आदर्शों और ध्येयों को दोष देने लगा हूँ।
सहसा उसके कानों में किसी गीत के स्वर पडे। बहुत से कंठ एक साथ गा रहे थे, और स्वर लहरियाँ वातावरण में हिलोरे लेने लगी थीं। अर्जुनदास उठ खड़ा हुआ और धीरे-धीरे चलता हुआ दर्शकों की पाँतों की ओर बढ़ गया। उसे पता नहीं चला कि कब उसके वयोवृद्ध साथी, उसकी पत्नी, अन्य लोग, मैदान में पहुँच गए थे और कहाँ पर जा बैठे थे। खंभों पर लगी मध्दिम-सी बत्तियों की रोशनी में वह मैदान में बढ़ता हुआ, पिछली एक पाँत में बैठ गया। मैदान में भारी भीड़ जमा हो गई थी और ऊँचे मंच पर, माइक के पीछे एक गान मंडली खड़ी ग़ा रही थी। मंडली के आगे वही युवक खड़ा था, अपना दायाँ हाथ ऊँचा उठाए, गहरी रुँधी हुई भावना में ओतप्रोत आवाज में वह सहगान में अपनी मंडली का नेतृत्व कर रहा था। सारा वातावरण उद्वेलित होने लगा था।
एक साथ है कदम, जहान साथ है
लोगों की भीड़ पर उस गीत का असर होने लगा था। देश की विकट स्थिति आँखों के सामने उभरने लगी थी, मानो उनकी आवाज में वह दारूण स्थिति मुखर हो उठी हो। स्वर लहरियाँ उठ रही थी, गीत के शब्द दिलों पर दस्तक देने लगे थे। अर्जुनदास पीछे की कतारों में से एक कतार में चुपचाप आ कर बैठ गया था। लोग इस भावोद्वलित गीत को सुनने में इतने तन्मय थे कि संयोजकों में से किसी का ध्यान वयोवृद्ध अर्जुनदास की ओर नहीं गया, नहीं तो उसके पास दौड़े आते और उसका हाथ थाम कर उसे अगली पाँत में बैठने के लिए ले जाते।
गीत समाप्त हुआ, पर उसका स्पंदन वायु मंडल को उद्वेलित किए रहा। फिर एक और गीत गाया गया, वही मंडली फिर से गा रही थी। मंडली के पास केवल एक ढोल और एक हारमोनियम था, गानेवाले भी सही निपुण कलाकार नहीं थे, परंतु भावना सभी अभावों की पूर्ति कर रही थी, कहीं कुछ था जो उनके अनगढ, कहीं-कहीं बेमेल आवाजों में भी मर्मस्पर्शी संगीट का संचार कर रहा था। अर्जुनदास को बैठे-बैठे अमरदास याद हो आया जो हाथ पसार कर ऐसे तान छेड़ता था कि सारा पंडाल गूँज उठता था। अमरदास जो अभावों में मरा था, पर जो हजारों-हजार लोगों के दिलों को बाँध लिया करता था।
अर्जुनदास धीरे-धीरे उस कार्यक्रम में खोता चला गया। ऐसा अक्सर होता था, गीत सुनते हुए भाव-विभोर हो उठता था, पर कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर उसका नशा जल्दी उतरने भी लगता और वस्तुस्थिति के कंकड़-पत्थर जैसे फिर से उसे चुभने लगते।
फिर वैसी ही बात हुई जैसी दसियों साल पहले, अर्जुनदास की जवानी के दिनों में हुई थी, मानो अतीत के धुँधलके में घटी हो। वही छरहरे शरीर वाला युवक मंच पर लालटेन उठाए बूढे बुजुर्ग की दाढ़ी लगाए, ऊँची थरारती आवाज में कह रहा था, सुनोगे? इस विपदा की कहानी सुनोगे?
और दर्शकों की भीड़ दत्तचित्त सुने जा रही थी। उस युवक के हाथ में झूलता हरीकेन लैंप लगता किन्हीं सुनसान बियाबानों को लाँघ रहा था।
लगभग डेढ़ घंटे बाद खेल समाप्त हुआ। खेल समाप्त होने पर वही युवक मंच पर से उतर आया और झोली पसारे मैदान में बैठे दर्शकों की पाँतों की ओर बढ़ने लगा। युवक के पीछे-पीछे मंडली के अन्य युवक युवतियाँ भी उतर आए थे। सभी नीचे पहुँच कर छितर गए थे और झोली फैलाए एक पाँत से दूसरी पाँत की ओर जाने लगे थे।
जब वही युवक, झोली फैलाए, अर्जुनदास के निकट, सामने वाली पाँत के सामने से गुजर रहा था तो एक स्त्री ने भावविह्वल हो कर अपने दोनों हाथ उठा कर अपने कानों में से झूमर उतार कर युवक की झोली में डाल दिए थे।
अर्जुनदास चौंका, उसने ध्यान से देखा उसकी पत्नी कमला ने झूमर उतार कर झोली में फेंके थे। उसका एकमात्र झूमरों का जोड़ा जो बेटी की शादी के समय उसने अपने लिए बनवाया था। झूमर फेंक चुकने के बाद, कमला सिर पर अपनी ओढ़नी ठीक कर रही थी और अपनी आँखें पोंछ रही थी। https://website-quotation.zmu.in/
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़ें, कुछ बालक झंडियां और झंडे लिये बंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।
शंभुनाथ ने दूकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा-सब के सब काल के मुँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।
दीनदयाल ने कहा—महात्मा जी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो अब तक कब का मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो—लौंड़े, लफंगे, सिरफिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं।
मैकू चिटिटयों और स्लीपरों की माला गरदन में लटकाये खड़ा था। इन दोनों सेठों की बातें सुन कर हंसा।
शंभू ने पूछा—क्यों हंसे मैकू? आज रंग चोखा मालूम होता है।
मैकू—हंसा इस बात पर जो तुमने कहीं कि कोई बड़ा आदमी जुलूस में नहीं है। बड़े आदमी क्यों जुलूस में आने लगे, उन्हें इस राज में कौन आराम नहीं है? बंगलों और महलों में रहते हैं, मोटरों पर घूमते हैं, साहबों के साथ दावतें खाते है, कौन तकलीफ है! मर तो हम लोग रहे है जिन्हें रोटियों का ठिकाना नहीं। इस बखत कोई टेनिस खेलता होगा, कोई चाय पीता होगा, कोई ग्रामोफोन लिए गाना सुनता होगा, कोई पारिक की सैर करता होगा, यहां आये पुलिस के कोड़े खाने के लिए? तुमने भी भली कही?
शंभु—तुम यह सब बातें क्या समझोगे मैकू, जिस काम में चार बड़े आदमी अगुआ होते हैं उसकी सरकार पर भी धाक बैठ जाती है। लौंडों- लफंगों का गोल भला हाकिमों की निगाह में क्या जँचेगा?
मैकू ने ऐसी दृष्टि से देखा, जो कह रही थी-इन बातों के समझने की ठीका कुछ तुम्हीं ने नहीं लिया है और बोला- बड़े आदमी को तो हमी लोग बनाते-बिगाड़ते हैं या कोई और? कितने ही लोग जिन्हें कोई पूछता भी न था, हमारे ही बनाये बड़े आदमी बन गये और अब मोटरों पर निकलते हैं और हमें नीच समझते हैं। यह लोगों की तकदीर की खूबी है कि जिसकी जरा बढ़ती हुई और उसने हमसे ऑंखें फेरीं। हमारा बड़ा आदमी तो वही है, जो लँगोटी बॉँधे नंगे पॉँव घुमता है, जो हमारी दशा को सुधारने को लिए अपनी जान हथेली पर लिये फिरता है। और हमें किसी बड़े आदमी की परवाह नहीं है। सच पूछो, तो इन बड़े आदमियों ने ही हमारी मिट्टी खराब कर रखी है। इन्हें सरकार ने कोई अच्छी-सी जगह दे दी, बस उसका दम भरने लगे।
दीनदयाल- नया दारोगा बड़ा जल्लाद है। चौरास्ते पर पहुँचते ही हंटर ले कर पिल पड़ेगा। फिर देखना, सब कैसे दुम दबा कर भागते हैं। मजा आयेगा।
जुलूस स्वाधीनता के नशे में चूर चौरास्ते पर पहुँचा तो देखा, आगे सवारों आर सिपाहियों का एक दस्ता रास्ता रोके खड़ा है।
सहसा दारोगा बीरबल सिंह घोड़ा बढ़ाकर जुलूस के सामने आ गये और बोले- तुम लोगों को आगे जाने का हुक्म नहीं है।
जुलूस के बूढें नेता इब्राहिम अली ने आगे बढ़कर कहा-मैं आपको इतमीनान दिलाता हूँ, किसी किस्म का दंगा-फसाद न होगा। हम दूकानें लूटने या मोटरें तोड़ने नहीं निकले हैं। हमारा मकसद इससे कहीं ऊँचा हैं।
बीरबल- मुझे यह हुक्म है कि जुलूस यहॉँ से आगे न जाने पाये।
इब्राहिम- आप अपने अफ़सरों से जरा पूछ न लें।
बीरबल- मैं इसकी कोई जरूरत नहीं समझता।
इब्राहिम-तो हम लोग यहीं बैठते हैं। जब आप लोग चलें जायँगे तो हम तो निकल जायँगे।
बीरबल- यहॉँ खड़े होने का भी हुक्म नहीं है। तुमको वापस जाना पड़ेगा।
इब्राहिम ने गंभीर भाव से कहा—वापस तो हम न जायेंगे। आपको या किसी को भी, हमें रोकने का कोई हक नहीं । आप अपने सवारों, संगीनों और बन्दूकों के जोर से हमें रोकना चाहते हैं, रोक लीजिए, मगर आप हमें लौटा नहीं सकते । न जाने वह दिन कब आयेगा, जब हमारे भाई –बन्द ऐसे हुक्मों की तामील करने से साफ़ इन्कार कर देंगे, जिनकी मंशा महज कौम को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखना है।
बीरबल ग्रेजुएट था। उसका बाप सुपरिंटेंडेंट पुलिस था। उसकी नस-नस में रोब भरा हुआ था । अफ़सरों की दृष्टि में उसका बड़ा सम्मान था। खासा गोरा चिट्टा, नीली ऑंखों और भूरे बालों वाला तेजस्वी पुरुष था। शायद जिस वक्त वह कोट पहन कर ऊपर से हैट लगा लेता तो वह भूल जाता था कि मैं भी यहॉँ का रहने वाला हूँ। शायद वह अपने को राज्य करनेवाली जाति का अंग समझने लगता था; मगर इब्राहिम के शब्दों में जो तिरस्कार भरा हुआ था, उसने जरा देर के लिए उसे लज्जित कर दिया । पर मुआमला नाजुक था। जुलूस को रास्ता दे देता है, तो जवाब तलब हो जायगा; वहीं खड़ा रहने दता है, तो यह सब ना जाने कब तक खड़े रहें। इस संकट में पड़ा हुआ था कि उसने डी० एस० पी० को घोड़े पर आते देखा। अब सोच-विचार का समय न था। यही मौका था कारगुजारी दिखाने का । उसने कमर से बेटन निकाल लिया और घोडें को एड़ लगाकर जुलूस पर चढ़ाने लगा। उसे देखते ही और सवारों ने भी घोड़ों को जुलूस पर चढ़ाना शुरू कर दिया । इब्राहिम दारोगा के घोड़े के सामने खड़ा था। उसके सिर पर एक बेटन ऐसे जोर से पड़ा कि उसकी आँखें तिलमिला गयीं। खड़ा न रहा सका । सिर पकड़ कर बैठ गया। उसी वक्त दारोगा जी के घोड़े ने दोनों पॉँव उठाये और ज़मीन पर बैठा हुआ इब्राहिम उसके टापों के नीचे आ गया। जुलूस अभी तक शांत खड़ा था। इब्राहिम को गिरते देख कर कई आदमी उसे उठाने के लिए लपके; मगर कोई आगे न बढ़ सका। उधर सवारों के डंडे बड़ी निर्दयता से पड़ रहे थे। लोग हाथों पर डंडों को रोकते थे और अविचलित रूप से खड़े थे। हिंसा के भावों में प्रभावित न हो जाना उसके लिए प्रतिक्षण कठिन होता जाता था। जब आघात और अपमान ही सहना है, तो फिर हम भी इस दीवार को पार करने की क्यों न चेष्टा करें? लोगों को खयाल आया, शहर के लाखों आदमियों की निगाहे हमारी तरफ़ लगी हुई हैं। यहॉँ से यह झंडा लेकर हम लौट जायँ, तो फिर किस मुँह से आजादी का नाम लेंगे; मगर प्राण-रक्षा के लिए भागने का किसी को ध्यान भी न आता था। यह पेट के भक्तों , किराये के टट्टुओं का दल न था। यह स्वाधीनता के सच्चे स्वयंसेवकों का, आजादी के दीवानों का संगठित दल था- अपनी जिम्मेदारियों को खूब समझता था। कितने ही के सिरों से खून जारी था, कितने ही के हाथ जख्मी हो गये थे। एक हल्ले में यह लोग सवारों की सफ़ो को चीर सकते थे, मगर पैरों में बेड़ियॉँ पड़ी हुई थीं- सिद्धांत की, धर्म की, आदर्श की ।
दस-बारह मिनट तक यों ही डंडों की बौछार होती रही और लोग शांत खड़े रहे।
२
इस मार-धाड़ की खबर एक क्षण में बाजार में जा पहुँची । इब्राहिम घोड़े से कुचल गये, कई आदमी जख्मी हो गये, कई के हाथ टुट गये, मगर न वे लोग पीछे फिरते हैं और न पुलिस उन्हें आगे जाने देती है।
मैकू ने उत्तेजित होकर कहा- अब तो भाई, यहॉँ नहीं रही जाता। मैं भी चलता हूँ।
दीनदयाल ने कहा- हम भी चलते हैं भाई, देखी जायगी।
शम्भू एक मिनट तक मौन खड़ा रहा। एकाएक उसने भी दूकान बढ़ायी और बोला- एक दिन तो मरना ही हैं, जो कुछ होना है, हो। आखिर वे लोग सभी के लिए तो जान दे रहै है। देखते-देखते अधिकांश दूकानें बन्द हो गयीं। वह लोग, जो दस मिनट पहले तमाशा देख रहे थे इधर-उधर से दौड़ पड़े और हजारों आदमियों का एक विराट् दल घटना-स्थल की ओर चला। यह उन्मत्त, हिंसामद से भरें हुए मनुष्यों का समूह था,जिसे सिद्धान्त और आदर्श की परवाह न थी । जो मरने के लिए ही नहीं मारने के लिए भी तेयार थे। कितनों ही के हाथों में लाठियॉँ थी, कितने ही जेबों में पत्थर भरे हुए थे। न कोई किसी से कुछ बोलता था, न पूछता था। बस, सब-के-सब मन में एक दृढ़ संकल्प किये लपके चले जा रहे थे, मानो कोई घटा उमड़ी चली आती हो।
इस दल को दूर से दखते ही सवारों में कुछ हलचल पड़ी। बीरबल सिंह के चेहरे पर हवाइयॉँ उड़ने लगीं। डी० एस० पी० ने अपनी मोटर बढ़ायी । शांति और अहिंसा के व्रतधारियों पर डंडे बरसाना और बात थी, एक उन्मत्त दल से मुकाबला करना दूसरी बात । सवार और सिपाही पीछे खिसक गये।
इब्राहिम की पीठ पर घोड़े न टाप रख दी। वह अचेत जमीन पर पड़े थे। इन आदमियों का शोरगुल सुन कर आप ही आप उनकी ऑंखें खुल गयीं। एक युवक को इशारे से बुलाकर कहा – क्यों कैलाश, क्या कुछ लोग शहर से आ रहे हैं।
कैलाश ने उस बढ़ती हुई घटा की ओर देखकर कहा- जी हॉँ, हजारों आदमी है।
इब्राहिम- तो अब खैरियत नहीं है। झंडा लौटा दो। हमें फौरन लौट चलना चाहिए, नहीं तूफान मच जायगा। हमें अपने भाइयों से लड़ाई नहीं करनी है। फौरन लौट चलो।
यह कहते हुए उन्होंने उठने की चेष्टा की , मगर उठ न सके।
इशारे की देर थी । संगठित सेना की भॉँति लोग हुक्म पाते ही पीछे फिर गये। झंडियों के बॉँसों, साफों और रूमालों से चटपट एक स्ट्रेचर तैयार हो गया। इब्राहिम को लोगों ने उस पर लिटा दिया और पीछे फिरे। मगर क्या वह परास्त हो गये थे? अगर कुछ लोगों को उन्हें परास्त मानने में ही संतोष हो , तो हो, लेकिन वास्तव में उन्होंने एक युगांतकारी विजय प्राप्त की थी। वे जानते थे, हमारा संघर्ष अपने ही भाइयों से है, जिनके हित परिस्थितियों के कारण हमारे हितों से भिन्न है। हमें उनसे वैर नहीं करना है। फिर, वह यह भी नहीं चाहते कि शहर में लूट और दंगे का बाजार गर्म हो जाय और हमारे धर्मयुद्ध का अंत लूटी हुई दूकानें , फूटे हुए सिर हों , उनकी विजय का सबसे उज्जवल चिन्ह यह था कि उन्होंने जनता की सहानुभूति प्राप्त कर ली थी । वही लोग, जो पहले उन पर हँसते थे; उनका धैर्य और साहस देख कर उनकी सहायता के लिये निकल पड़े थे। मनोवृति का यह परिवर्तन ही हमारी असली विजय है। हमें किसी से लड़ाई करने की जरूरत नहीं, हमारा उद्देश्य केवल जनता की सहानुभूति प्राप्त करना है, उसकी मनोवृतियों का बदल देना है। जिस दिन हम इस लक्ष्य पर पहुँच जायेंगे, उसी दिन स्वराज्य सूर्य उदय होगा।
३
तीन दिन गुजर गये थे। बीरबल सिंह अपने कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और उनकी पत्नी मिट्ठन बाई शिशु को गोद में लिए सामने खड़ी थीं।
बीरबल सिंह ने कहा- मैं क्या करता उस वक्त। पीछे डी० एस० पी० खड़ा था। अगर उन्हें रास्ता दे देता तो अपनी जान मुसीबत में फँसती। मिट्ठन बाई ने सिर हिला कर कहा- तुम कम से कम इतना तो कर ही सकते थे कि उन पर डंडे न चलाने देते । तुम्हारा काम आदमियों पर डंडे चलाना है? तुम ज्यादा से ज्यादा उन्हें रोक सकते थे। कल को तुम्हें अपराधियों को बेंत लगाने का काम दिया जाय , तो शायद तुम्हें बड़ा आनंद आयेगा, क्यों। बीरबल सिंह ने खिसिया कर कहा- तुम तो बात नहीं समझती हो !
मिट्ठुन बाई- मैं खूब समझती हूँ। डी० एस० पी० पीछे खड़ा था। तुमने सोचा होगा ऐसी कारगुजारी दिखाने का अवसर शायद फिर कभी मिले या न मिले। क्या तुम समझते हो, उस दल में कोई भला आदमी न था? उसमें कितने आदमी ऐसे थे, जो तुम्हारे जैसों को नौकर रख सकते है। विद्या में तो शायद अधिकांश तुमसे बढ़े हुए होंगे । मगर तुम उन पर डंडे चला रहे थे और उन्हें घोड़े से कुचल रहे थे, वाह री जवॉँमर्दी !
बीरबल सिंह ने बेहयाई की हँसी के साथ कहा- डी० एस० पी० ने मेरा नाम नोट कर लिया है। सच !
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दारोगा जी ने समझा था कि यह सूचना देकर वह मिट्ठन बाई को खुश कर देंगे। सज्जनता और भलमनसी आदि ऊपर की बातें हैं, दिल से नहीं, जबान से कही जाती है । स्वार्थ दिल की गहराइयों में बैठा होता है। वह गम्भीर विचार का विषय है।
मगर मिट्ठन बाई के मुख पर हर्ष की कोई रेखा न नजर आयी, ऊपर की बातें शायद गहराइयों तक पहुँच गयीं थीं ! बोलीं—जरूर कर लिया होगा और शायद तुम्हें जल्दी तरक्की भी मिल जाय। मगर बेगुनाहों के खून से हाथ रंग कर तरक्की पायी , तो क्या पायी! यह तुम्हारी कारगुजारी का इनाम नहीं, तुम्हारे देशद्रोह की कीमत है। तुम्हारी कारगुजारी का इनाम तो तब मिलेगा, जब तुम किसी खूनी को खोज निकालोगे, किसी डूबते हूए आदमी को बचा लोगे।
एकाएक एक सिपाही ने बरामदे में खड़े हो कर कहा- हुजूर, यह लिफाफा लाया हूँ। बीरबल सिंह ने बाहर निकलकर लिफाफा ले लिया और भीतर की सरकारी चिट्ठी निकाल कर पढ़ने लगे। पढ़ कर उसे मेज पर रख दिया ।
मिट्ठन ने पूछा- क्या तरक्की का परवाना आ गया?
बीरबल सिंह ने झेंप कर कहा- तुम तो बनाती हो ! आज फिर कोई जुलूस निकलने वाला है । मुझे उसके साथ रहने का हुक्म हुआ है ।
मिटठन- फिर तो तुम्हारी चॉँदी है। तैयार हो जाओ। आज फिर वैसे ही शिकार मिलेंगे। खूब बढ़-बढ़ कर हाथ दिखलाना! डी० एस०पी० भी जरूर आयेंगे। अबकी तुम इंसपेक्टर हो जाओगे । सच !
बिरबल सिंह ने माथा सिकोड़ कर कहा- कभी-कभी तुम बे सिर-पैर की बातें करने लगती हो। मान लो , मै जाकर चुपचाप खड़ा रहूँ, तो क्या नतीजा होगा। मैं नालायक समझा जाऊँगा और मेरी जगह कोई दूसरा आदमी भेज दिया जायगा। कहीं शुबहा हो गया कि मुझे स्वराज्यवादियों से सहानुभूति है , तो कहीं का न रहूँगा। अगर बर्खासत भी न हुआ तो लैन की हाजिरी तो हो ही जायगी । आदमी जिस दुनिया में रहता है, उसी का चलन देखकर काम करता है। मैं बुद्धिमान न सही; पर इतना जानता हूँ कि ये लोग देश और जाति का उद्धार करने के लिये ही कोशिश कर रहे है। यह भी जानता हूँ कि सरकार इस ख्याल को कुचल डालना चाहती है। ऐसा गधा नहीं हूँ कि गुलामी की जिंदगी पर गर्व करूँ; लेकिन परिस्थिति से मजबुर हूँ।
बाजे की आवाज कानों में आयी। बीरबल सिंह ने बाहर जाकर पूछा। मालूम हुआ स्वराज्य वालों का जुलूस आ रहा है। चटपट वर्दी पहनी, साफा बॉँधा और जेब में पिस्तौर रख कर बाहर आये। एक क्षण में घोड़ा तैयार हो गया। कान्सटेबल पहले ही से तैयार बैठे थे। सब लोग डबल मार्च करते हुए जुलूस की तरफ चले।
४
ये लोग डबल मार्च करते हुए कोई पन्द्रह मिनट में जुलूस के सामने पहूँच गये। इन लोगों को देखते ही अगणित कंठों से ‘वंदेमातरम्’ की एक ध्वनि निकली, मानों मेघमंडल में गर्जन का शब्द हुआ हो, फिर सन्नाटा छा गया। उस जुलूस में और इस जुलूस में कितना अंतर था ! वह स्वराज्य के उत्सव का जुलूस था, यह एक शहीद के मातम का । तीन दिन के भीषण ज्वर और वेदना के बाद आज उस जीवन का अंत हो गया , जिसने कभी पद की लालसा नहीं की, कभी अधिकार के सामने सिर नहीं झुकाया। उन्होंने मरते समय वसीयत की थी कि मेरी लाश को गंगा में नहला कर दफन किया जाय और मेरे मजार पर स्वराज्य का झंडा खड़ा किया जाय। उनके मरने का समाचार फैलते ही सारे शहर पर मातम का पर्दा-सा पड़ गया। जो सुनता था, एक बार इस तरह चौंक पड़ता था। जैसे उसे गोली लग गयी हो और तुरंत उनके दर्शनों के लिए भागता था। सारे बाजार बंद हो गये, इक्कों और तांगों का कहीं पता न था जैसे शहर लुट गया हो । देखते-देखते सारा शहर उमड़ पड़ा। जिस वक्त जनाजा उठा, लाख-सवालाख आदमी साथ थे। कोई ऑंख ऐसी न थी, जो ऑंसुओं से लाल न हो।
बीरबल सिंह अपने कांस्टंबलों और सवारों को पॉँच-पॉँच गज के फासले पर जुलूस के साथ चलने का हुक्म देकर खुद पीछे चले गयें। पिछली सफों में कोई पचास गज तक महिलाएँ थीं। दारोगा ने उसकी तरफ ताका। पहली ही कतार में मिट्ठन बाई नजर आयीं। बीरबल को विश्वास न आया। फिर ध्यान से देखा, वही थी। मिट्ठन ने उनकी तरफ एक बार देखा और ऑंखं फेर लीं, पर उसकी एक चितवन में कुछ ऐसा धिक्कार, कुछ ऐसी लज्जा, कुछ ऐसी व्यथा, कुछ ऐसी घृणा भरी हुई थी कि बीरबल सिंह की देह में सिर से पॉँव तक सनसनी –सी दौड़ गयी। वह अपनी दृष्टि में कभी इतने हल्के, इतने दुर्बल इतने जलील न हुए थे।
सहसा एक युवती ने दारोगा जी की तरफ देख कर कहा – कोतवाल साहब कहीं हम लोगों पर डंडे न चला दीजिएगा। आपको देख कर भय हो रहा है !
दूसरी बोली- आप ही के कोई भाई तो थे, जिन्होंने उस माल के चौरस्ते पर इस पुरूष पर आघात किये थे।
मिट्ठन ने कहा – आपके कोई भाई न थे, आप खुद थे।
बीसियों ही मुँहों से आवाजें निकलीं- अच्छा, यह वही महाशय है? महाशय आपका नमस्कार है। यह आप ही की कृपा का फल है कि आज हम भी आपके डंडे के दर्शन के लिए आ खड़ी हुई है !
बीरबल ने मिट्ठनबाई की ओर ऑंखों का भाला चलाया; पर मुँह से कुछ न बोले। एक तीसरी महिला ने फिर कहा- हम एक जलसा करके आपको जयमाल पहनायेंगे और आपका यशोगान करेंगे।
चौथी ने कहा- आप बिलकुल अँगरेज मालूम होते हैं, जभी इतने गोरे हैं!
एक बुढ़िया ने ऑंखें चढ़ा कर कहा- मेरी कोख में ऐसा बालक जन्मा होता, तो उसकी गर्दन मरोड़ देती !
एक युवती ने उसका तिरस्कार करके कहा- आप भी खूब कहती हैं, माताजी, कुत्ते तक तो नमक का हक अदा करते हैं, यह तो आदमी हैं !
बुढ़िया ने झल्ला कर कहा- पेट के गुलाम , हाय पेट, हाय पेट !
इस पर कई स्त्रियों ने बुढ़िया को आड़े हाथों ले लिया और वह बेचारी लज्जित होकर बोली-अरे, मैं कुछ कहती थोड़े ही हूँ। मगर ऐसा आदमी भी क्या, जो स्वार्थ के पीछे अंधा हो जाय।
बीरबल सिंह अब और न सुन सके । धोड़ा बढ़ा कर जुलूस से कई गज पीछे चले गये। मर्द लज्जित करता है, तो हमें क्रोध आता है; स्त्रियां लज्जित करती हैं, तो ग्लानि उत्पन्न होती है। बीरबल सिंह की इस वक्त इतनी हिम्मत न थी कि फिर उन महिलाओं के सामने जाते । अपने अफसरों पर क्रोध आया । मुझी को बार-बार क्यों इन कामों पर तैनात किया जाता है? और भी तो हैं, उन्हें क्यों नहीं लाया जाता ? क्या मैं ही सब से गया-बीता हूँ। क्या मैं ही सबसे भावशून्य हूँ।
मिट्ठी इस वक्त मुझे दिल मे कितना कायर और नीच समझ रही होगी? शायद इस वक्त मुझे इस वक्त मुझे कोई मार डाले, तो वह जबान भी न खोलेगीं। शायद मन में प्रसन्न होगी कि अच्छा हुआ। अभी कोई जाकर साहब से कह दे कि बीरबल सिंह की स्त्री जुलूस में निकली थी, तो कहीं का न रहूँ ! मिट्ठी जानती है, समझती फिर भी निकल खड़ी हुई। मुझसे पूछा तक नहीं । कोई फिक्र नहीं है न , जभी ये बातें सूझती हैं, यहॉँ सभी बेफिक्र हैं, कालेजों और स्कूलों के लड़के, मजदूर पेशेवर इन्हें क्या चिंता ? मरन तो हम लोगों की है, जिनके बाल-बच्चे हैं और कुल –मर्यादा का ध्यान हैं। सब की सब मेरी तरफ कैसा घुर रही थी, मानों खा जायँगीं
जुलूस शहर की मुख्य सड़कों से गुजरता हुआ चला जा रहा था । दोनों ओर छतों पर , छज्जों पर, जंगलों पर, वृक्षों पर दर्शकों की दीवारें-सी खड़ी थी। बीरबल सिंह को आज उनके चेहरों पर एक नयी स्फूर्ति, एक नया उत्साह, एक नया गर्व झलकता हुआ मालूम होता था । स्फूर्ति थी वृक्षों के चेहरे पर , उत्साह युवकों के और गर्व रमणियों के। यह स्वराज्य के पथ पर चलने का उल्लास था। अब उनको यात्रा का लक्ष्य अज्ञात न था, पथभ्रष्टों की भॉँति इधर-उधर भटकना न था, दलितों की भॉँति सिर झुका कर रोना न था। स्वाधीनता का सुनहला शिखर सुदूर आकाश में चमक रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि लोगों को बीच के नालों और जंगलों की परवाह नहीं हैं। सब उन सुनहले लक्ष्य पर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहै हैं।
ग्यारह बजते-बजते जुलूस नदी के किनारे जा पहुँचा, जनाजा उतारा गया और लोग शव को गंगा-स्नान कराने के लिए चले। उसके शीतल, शांत, पीले मस्तक पर लाठी की चोट साफ नजर आ रही थी। रक्त जम कर काला हो गया था। सिर के बड़े-बड़े बाल खून जम जाने से किसी चित्रकार की तूलिका की भॉँति चिमट गये थे। कई हजार आदमी इस शहीद के अंतिम दर्शनों के लिए, मंडल बॉँध कर खड़े हो गये । बीरबल सिंह पीछे घोड़े पर सवार खड़े थे। लाठी की चोट उन्हें भी नजर आयी। उनकी आत्मा ने जोर से धिक्कारा। वह शव की ओर न ताक सके। मुँह फेर लिया। जिस मनुष्य के दर्शनें के लिए, जिनके चरणों की रज मस्तक पर लगाने के लिए लाखों आदमी विकल हो रहे हैं उसका मैंने इतना अपमान किया। उनकी आत्मा इस समय स्वीकार कर रही थी कि उस निर्दय प्रहार में कर्तव्य के भाव का लेश भी न था- केवल स्वार्थ था, कारगुजारी दिखाने की हवस और अफसरों को खुश करने की लिप्सा थी। हजारों ऑंखें क्रोध से भरी हुई उनकी ओर देख रही थी;पर वह सामने ताकने का साहस न कर सकते थे।
एक कांस्टेबल ने आकर प्रशंसा की – हुजूर का हाथ गहरा पड़ा था। अभी तक खोपड़ी खुली हुई है। सबकी ऑंखें खुल गयीं।
बीरबल ने उपेक्षा की – मैं इसे अपनी जवॉँमर्दी नहीं, अपना कमीनापन समझता हूँ।
कांस्टेबल ने फिर खुशामद की –बड़ा सरकश आदमी था हुजूर !
बीरबल ने तीव्र भाव से कहा—चुप रहो ! जानते भी हो, सरकश किसे कहते है? सरकश वे कहलाते हैं, जो डाके मारते हैं, चोरी करते हैं, खून करते है । उन्हें सरकश नहीं कहते जो देश की भलाई के लिए अपनी जान हथेली पर लिये फिरते हों। हमारी बदनसीबी है कि जिनकी मदद करनी चाहिए उनका विरोध कर रहै हैं यह घमंड करने और खुश होने की बात नहीं है, शर्म करने और रोने की बात है। स्नान समाप्त हुआ। जुलूस यहॉँ से फिर रवाना हुआ ।
5
शव को जब खाक के नीये सुला कर लोग लौटने लगे तो दो बज रहे थे। मिट्ठन कई स्त्रियों के साथ-साथ कुछ दूर तक तो आयी, पर क्वीन्स-पार्क में आकर ठिठक गयी। घर जाने की इच्छा न हुई। वह जीर्ण, आहत, रक्तरंजित शव, मानों उसके विरक्त हो गया था कि अब उसे धिक्कारने की भी उसकी इच्छा न थी । ऐसे स्वार्थी मनुष्य पर भय के सिवा और किसी चीज का असर हो सकता है, इसका उसे विश्वास ही न था।
वह बड़ी देर तक पार्क में घास पर बैठी सोचती रही, पर अपने कर्तव्य का कुछ निश्चय न कर सकी । मैके जा सकती थी, किन्तु वहॉँ से महीने दो महीने में फिर इसी घर आना पड़ेगा। नहीं मैं किसी की आश्रित न बनूँगी। क्या मैं अपने गुजर –बसर को भी नहीं कमा सकती ? उसने स्वयं भॉँति-भॉँति की कठिनाइयो की कल्पना की ; पर आज उसकी आत्मा में न जाने इतना बल कहॉँ से आ गया। इन कल्पनाओं का ध्यान में लाना ही उसे अपनी कमजोरी मालूम हुई।
सहसा उसे इब्राहिम अली की वृद्धा विधवा का खयाल आया। उसने सुना था, उनके लड़के –बाले नहीं हैं। बेचारी बैठी रो रही होंगी। कोई तसल्ली देना वाला भी पास न होगा । वह उनके मकान की ओर चलीं। पता उसने पहले ही अपने साथ की औरतों से पूछ लिया था। वह दिल में सोचती जाती थी –मैं उनसे कैसे मिलूँगी, उनसे क्या कहूँगी , उन्हें किन शब्दों में समझाऊँगी। इन्हीं विचारों में डूबी हुई वह इब्राहिम अली के घर पर पहूँच गयी । मकान एक गली में था, साफ-सुथरा; लेकिन द्वार पर हसरत बरस रही थीं। उसने धड़कते हुए ह्रदय से अंदर कदम रखा। सामने बरामदे में एक खाट पर वह वृद्धा बैठी हुई थी, जिसके पति ने आज स्वाधीनता की वेदी पर अपना बलिदान दिया था। उसके सामने सादे कपड़े पहने एक युवक खड़ा, ऑंखों में ऑंसू भरे वृद्धा से बातें कर रहा था। मिट्ठन उस युवक को देखकर चौंक पड़ी- वह बीरबल सिंह थे।
उसने क्रोधमय आश्चर्य से पूछा- तुम यहॉँ कैसे आये?
बीरबल सिंह ने कहा—उसी तरह जैसे तुम आयीं। अपने अपराध क्षमा कराने आया हूँ !
मिट्ठन के गोरे मुखड़े पर आज गर्व, उल्लास और प्रेम की जो उज्जवल विभूती नजर आयी, वह अकथनीय थी ! ऐसा जान पड़ा , मानों उसके जन्म-जन्मांतर के क्लेश मिट गये हैं, वह चिंता और माया के बंधनों से मुक्त हो गयी है। https://zmu.in
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मुन्नी जिस वक्त दिलदारनगर में आयी, उसकी उम्र पांच साल से ज्यादा न थी। वह बिलकुल अकेली न थी, माँ-बाप दोनों न मालूम मर गये या कहीं परदेस चले गये थे। मुत्री सिर्फ इतना जानती थी कि कभी एक देवी उसे खिलाया करती थी और एक देवता उसे कंधे पर लेकर खेतों की सैर कराया करता था। पर वह इन बातों का जिक्र कुछ इस तरह करती थी कि जैसे उसने सपना देखा हो। सपना था या सच्ची घटना, इसका उसे ज्ञान न था। जब कोई पूछता तेरे मॉँ-बाप कहां गये ? तो वह बेचारी कोई जवाब देने के बजाय रोने लगती और यों ही उन सवालों को टालने के लिए एक तरफ हाथ उठाकर कहती—ऊपर। कभी आसमान की तरफ़ देखकर कहती—वहां। इस ‘ऊपर’ और ‘वहां’ से उसका क्या मतलब था यह किसी को मालूम न होता। शायद मुन्नी को यह खुद भी मालूम न था। बस, एक दिन लोगों ने उसे एक पेड़ के नीचे खेलते देखा और इससे ज्यादा उसकी बाबत किसी को कुछ पता न था।
लड़की की सूरत बहुत प्यारी थी। जो उसे देखता, मोह जाता। उसे खाने-पीने की कुछ फ़िक्र न रहती। जो कोई बुलाकर कुछ दे देता, वही खा लेती और फिर खेलने लगती। शक्ल-सूरज से वह किसी अच्छे घर की लड़की मालूम होती थी। ग़रीब-से-ग़रीब घर में भी उसके खाने को दो कौर और सोने को एक टाट के टुकड़े की कमी न थी। वह सबकी थी, उसका कोई न था।
इस तरह कुछ दिन बीत गये। मुन्नी अब कुछ काम करने के क़ाबिल हो गयी। कोई कहता, ज़रा जाकर तालाब से यह कपड़े तो धो ला। मुन्नी बिना कुछ कहे-सुने कपड़े लेकर चली जाती। लेकिन रास्ते में कोई बुलाकर कहता, बेटी, कुऍं से दो घड़े पानी तो खींच ला, तो वह कपड़े वहीं रखकर घड़े लेकर कुऍं की तरफ चल देती। जरा खेत से जाकर थोड़ा साग तो ले आ और मुन्नी घड़े वहीं रखकर साग लेने चली जाती। पानी के इन्तज़ार में बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती। कुऍं पर जाकर देखती है तो घड़े रखे हुए हैं। वह मुन्नी को गालियॉँ देती हुई कहती, आज से इस कलमुँही को कुछ खाने को न दूँगी। कपड़े के इन्तज़ार में बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती और गुस्से में तालाब की तरफ़ जाती तो कपड़े वहीं पड़े हुए मिलते। तब वह भी उसे गालियॉँ देकर कहती, आज से इसको कुछ खाने को न दूँगी। इस तरह मुन्नी को कभी-कभी कुछ खाने को न मिलता और तब उसे बचपन याद आता, जब वह कुछ काम न करती थी और लोग उसे बुलाकर खाना खिला देते थे। वह सोचती किसका काम करुँ, किसका न करुँ जिसे जवाब दूँ वही नाराज़ हो जायेगा। मेरा अपना कौन है, मैं तो सब की हूँ। उसे ग़रीब को यह न मालूम था कि जो सब का होता है वह किसी का नहीं होता। वह दिन कितने अच्छे थे, जब उसे खाने-पीने की और किसी की खुशी या नाखुशी की परवाह न थी। दुर्भाग्य में भी बचपन का वह समय चैन का था।
कुछ दिन और बीते, मुन्नी जवान हो गयी। अब तक वह औरतों की थी, अब मर्दो की हो गयी। वह सारे गॉँव की प्रेमिका थी पर कोई उसका प्रेमी न था। सब उससे कहते थे—मैं तुम पर मरता हूँ, तुम्हारे वियोग में तारे गिनता हूँ, तुम मेरे दिलोजान की मुराद हो, पर उसका सच्चा प्रेमी कौन है, इसकी उसे खबर न होती थी। कोई उससे यह न कहता था कि तू मेरे दुख-दर्द की शरीक हो जा। सब उससे अपने दिल का घर आबाद करना चाहते थे। सब उसकी निगाह पर, एक मद्धिम-सी मुस्कराहट पर कुर्बान होना चाहते थे; पर कोई उसकी बाँह पकड़नेवाला, उसकी लाज रखनेवाला न था। वह सबकी थी, उसकी मुहब्बत के दरवाजे सब पर खुले हुए थे ; पर कोई उस पर अपना ताला न डालता था जिससे मालूम होता कि यह उसका घर है, और किसी का नहीं।
वह भोली-भाली लड़की जो एक दिन न जाने कहॉँ से भटककर आ गयी थी, अब गॉँव की रानी थी। जब वह अपने उत्रत वक्षों को उभारकर रुप-गर्व से गर्दन उठाये, नजाकत से लचकती हुई चलती तो मनचले नौजवान दिल थामकर रह जाते, उसके पैरों तले ऑंखें बिछाते। कौन था जो उसके इशारे पर अपनी जान न निसार कर देता। वह अनाथ लड़की जिसे कभी गुड़ियॉँ खेलने को न मिलीं, अब दिलों से खेलती थी। किसी को मारती थी। किसी को जिलाती थी, किसी को ठुकराती थी, किसी को थपकियॉँ देती थी, किसी से रुठती थी, किसी को मनाती थी। इस खेल में उसे क़त्ल और खून का-सा मज़ा मिलता था। अब पॉँसा पलट गया था। पहले वह सबकी थी, कोई उसका न था; अब सब उसके थे, वह किसी की न थी। उसे जिसे चीज़ की तलाश थी, वह कहीं न मिलती थी। किसी में वह हिम्मत न थी जो उससे कहता, आज से तू मेरी है। उस पर दिल न्यौछावर करने वाले बहुतेरे थे, सच्चा साथी एक भी न था। असल में उन सरफिरों को वह बहुत नीची निगाह से देखती थी। कोई उसकी मुहब्बत के क़ाबिल नहीं था। ऐसे पस्त-हिम्मतों को वह खिलौनों से ज्यादा महत्व न देना चाहती थी, जिनका मारना और जिलाना एक मनोरंजन से अधिक कुछ नहीं।
जिस वक्त़ कोई नौजवान मिठाइयों के थाल और फूलों के हार लिये उसके सामने खड़ा हो जाता तो उसका जी चाहता; मुंह नोच लूँ। उसे वह चीजें कालकूट हलाहल जैसी लगतीं। उनकी जगह वह रुखी रोटियॉँ चाहती थी, सच्चे प्रेम में डूबी हुई। गहनों और अशर्फियों के ढेर उसे बिच्छू के डंक जैसे लगते। उनके बदले वह सच्ची, दिल के भीतर से निकली हुई बातें चाहती थी जिनमें प्रेम की गंध और सच्चाई का गीत हो। उसे रहने को महल मिलते थे, पहनने को रेशम, खाने को एक-से-एक व्यंजन, पर उसे इन चीजों की आकांक्षा न थी। उसे आकांक्षा थी, फूस के झोंपड़े, मोटे-झोटे सूखे खाने। उसे प्राणघातक सिद्धियों से प्राणपोषक निषेध कहीं ज्यादा प्रिय थे, खुली हवा के मुकाबले में बंद पिंजरा कहीं ज्यादा चाहेता !
एक दिन एक परदेसी गांव में आ निकला। बहुत ही कमजोर, दीन-हीन आदमी था। एक पेड़ के नीचे सत्तू खाकर लेटा। एकाएक मुन्नी उधर से जा निकली। मुसाफ़िर को देखकर बोली—कहां जाओगे ?
मुसाफिर ने बेरुखी से जवाब दिया- जहन्नुम !
मुन्नी ने मुस्कराकर कहा- क्यों, क्या दुनिया में जगह नहीं ?
‘औरों के लिए होगी, मेरे लिए नहीं।’
‘दिल पर कोई चोट लगी है ?’
मुसाफिर ने ज़हरीली हंसी हंसकर कहा- बदनसीबों की तक़दीर में और क्या है ! रोना-धोना और डूब मरना, यही उनकी जिन्दगी का खुलासा है। पहली दो मंजिल तो तय कर चुका, अब तीसरी मंज़िल और बाकी है, कोई दिन वह पूरी हो जायेगी; ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द।
यह एक चोट खाये हुए दिल के शब्द थे। जरुर उसके पहलू में दिल है। वर्ना यह दर्द कहां से आता ? मुन्नी बहुत दिनों से दिल की तलाश कर रही थी बोली—कहीं और वफ़ा की तलाश क्यों नहीं करते ?
मुसाफिर ने निराशा के भव से उत्तर दिया—तेरी तक़दीर में नहीं, वर्ना मेरा क्या बना-बनाया घोंसला उजड़ जाता ? दौलत मेरे पास नहीं। रुप-रंग मेरे पास नहीं, फिर वफ़ा की देवी मुझ पर क्यों मेहरबान होने लगी ? पहले समझता था वफ़ा दिल के बदले मिलती है, अब मालूम हुआ और चीजों की तरह वह भी सोने-चॉँदी से खरीदी जा सकती है।
मुन्नी को मालूम हुआ, मेरी नज़रों ने धोखा खाया था। मुसाफिर बहुत काला नहीं, सिर्फ सॉँवला। उसका नाक-नक्शा भी उसे आकर्षक जान पड़ा। बोली—नहीं, यह बात नहीं, तुम्हारा पहला खयाल ठीक था।
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यह कहकर मुन्नी चली गयी। उसके हृदय के भाव उसके संयम से बाहर हो रहे थे। मुसाफ़िर किसी खयाल में डूब गया। वह इस सुन्दरी की बातों पर गौर कर रहा था, क्या सचमुच यहां वफ़ा मिलेगी ? क्या यहॉँ भी तक़दीर धोखा न देगी ?
मुसाफ़िर ने रात उसी गॉँव में काटी। वह दूसरे दिन भी न गया। तीसरे दिन उसने एक फूस का झोंपड़ा खड़ा किया। मुन्नी ने पूछा—यह झोपड़ा किसके लिए बनाते हो ?
मुसाफ़िर ने कहा—जिससे वफ़ा की उम्मीद है।
‘चले तो न जाओगे?’
‘झोंपड़ा तो रहेगा।’
‘खाली घर में भूत रहते हैं।’
‘अपने प्यारे का भूत ही प्यारा होता है।’
दूसरे दिन मुन्नी उस झोंपड़े में रहने लगी। लोगों को देखकर ताज्जुब होता था। मुन्नी उस झोंपड़े में नही रह सकती। वह उस भोले मुसाफिर को जरुर द़गा देगी, यह आम खयाल था, लेकिन मुन्नी फूली न समाती थी। वह न कभी इतनी सुन्दर दिखायी पड़ी थी, न इतनी खुश। उसे एक ऐसा आदमी मिल गया था, जिसके पहलू में दिल था।
2
लेकिन मुसाफिर को दूसरे दिन यह चिन्ता हुई कि कहीं यहां भी वही अभागा दिन न देखना पड़े। रुप में वफ़ा कहॉँ ? उसे याद आया, पहले भी इसी तरह की बातें हुई थीं, ऐसी ही कसम खायी गयी थीं, एक दूसरे से वादे किए गए थे। मगर उन कच्चे धागों को टूटते कितनी देर लगी ? वह धागे क्या फिर न टूट जाएंगे ? उसके क्षणिक आनन्द का समय बहुत जल्द बीत गया और फिर वही निराशा उसके दिल पर छा गयी। इस मरहम से भी उसके जिगर का जख्म न भरा। तीसरे रोज वह सारे दिन उदास और चिन्तित बैठा रहा और चौथे रोज लापता हो गया। उसकी यादगार सिर्फ उसकी फूस की झोंपड़ी रह गयी।
मुन्नी दिन-भर उसकी राह देखती रही। उसे उम्मीद थी कि वह जरुर आयेगा। लेकिन महीनों गुजर गये और मुसाफिर न लौटा। कोई खत भी न आया। लेकिन मुन्नी को उम्मीद थी, वह जरुर आएगा।
साल बीत गया। पेड़ों में नयी-नयी कोपलें निकलीं, फूल खिले, फल लगे, काली घटाएं आयीं, बिजली चमकी, यहां तक कि जाड़ा भी बीत गया और मुसाफिर न लौटा। मगर मुन्नी को अब भी उसके आने की उम्मीद थी; वह जरा भी चिन्तित न थी, भयभीत न थीं वह दिन-भर मजदूरी करती और शाम को झोंपड़े में पड़ रहती। लेकिन वह झोंपड़ा अब एक सुरक्षित किला था, जहां सिरफिरों के निगाह के पांव भी लंगड़े हो जाते थे।
एक दिन वह सर पर लकड़ी का गट्ठा लिए चली आती थी। एक रसियों ने छेड़खानी की—मुन्नी, क्यों अपने सुकुमार शरीर के साथ यह अन्याय करती हो ? तुम्हारी एक कृपा दृष्टि पर इस लकड़ी के बराबर सोना न्यौछावर कर सकता हूँ।
मुन्नी ने बड़ी घृणा के साथ कहा—तुम्हारा सोना तुम्हें मुबारक हो, यहां अपनी मेहनत का भरोसा है।
‘क्यों इतना इतराती हो, अब वह लौटकर न आयेगा।’
मुन्नी ने अपने झोंपड़े की तरफ इशारा करके कहा—वह गया कहां जो लौटकर आएगा ? मेरा होकर वह फिर कहां जा सकता हैं ? वह तो मेरे दिल में बैठा हुआ है !
इसी तरह एक दिन एक और प्रेमीजन ने कहा—तुम्हारे लिए मेरा महल हाजिर है। इस टूटे-फूटे झोपड़े में क्यों पड़ी हो ?
मुन्नी ने अभिमान से कहा—इस झोपड़े पर एक लाख महल न्यौछावर हैं। यहां मैने वह चीज़ पाई है, जो और कहीं न मिली थी और न मिल सकती है। यह झोपड़ा नहीं है, मेरे प्यारे का दिल है !
इस झोंपड़े में मुन्नी ने सत्तर साल काटे। मरने के दिन तक उसे मुसाफ़िर के लौटने की उम्मीद थी, उसकी आखिरी निगाहें दरवाजे की तरफ लगी हुई थीं। उसके खरीदारों में कुछ तो मर गए, कुछ जिन्दा हैं, मगर जिस दिन से वह एक की हो गयी, उसी दिन से उसके चेहरे पर दीप्ति दिखाई पड़ी जिसकी तरफ़ ताकते ही वासना की आंखें अंधी हो जातीं। खुदी जब जाग जाती है तो दिल की कमजोरियां उसके पास आते डरती हैं।
-‘खाके परवाना’ से
जगत सिंह को स्कूल जान कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक थां कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियॉँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों को डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियॉँ खाने में उसे मजा आता था। गालियॉँ खाने का कोइ्र अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्को को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन के विषय थे। आलसी काम तो नहीं करता; पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के बिना पूरे नहीं होते। जगतसिंह को जब अवसर मिलता घर से रूपये उड़ा ले जात। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे संकोच न होता था। घर में शीशियॉँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी बाजार पहुँचा दी। पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष ओर निपुण था कि उसकी चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवल कार्निसों के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आहट तक न मिली।
उसके पिता ठाकुर भक्तस सिहं अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हें शहर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहॉँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उलटी हानि यह हुई कि देहातो में जो भाजी-साग, उपले-ईधन मुफ्त मिल जाते थे, वे सब यहॉँ बंद हो गये। यहॉँ सबसे पुराना घराँव थां न किसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस दुरवस्था में जगतसिंह की हथलपकियॉँ बहुत अखरतीं। अन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगतसिंह भीमकाय होने पर भी चुपके में मार खा लिया करता थां अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हल भी न सकते; पर जगतसिंह इतना सीनाजोर न था। हॉँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।
जगतसिंह ज्यों ही घर में कदम रखता; चारों ओर से कॉँव-कॉँव मच जाती, मॉँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहने गालियॉँ देन लगती; मानो घर में कोई सॉँड़ घुस आया हो। घर ताले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया थां कष्टों के ज्ञान से वह निर्द्वन्द्व-सा हो गया था। जहॉँ नींद आ जाती, वहीं पड़ रहता; जो कुछ मिल जात, वही खा लेता।
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ज्यों-ज्यों घर वालें को उसकी चोर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहॉँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रूपये ऊपर चढ़ गये। गॉँजे वाले ने धुऑंधार तकाजे करने शुरू किय। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झॉँक में रहता; पर घात न मिलत थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखानें से चले, जो एक बीमा-रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाय; किंतु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पेसे के लोभ से जेब टटोली, तो लिफाफा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुरा कर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा दिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हें, तो कदाचित वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निक पड़े तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गला-फाड़ कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी की-सी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाय और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, दु:ख था, पर उसे भूल का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।
गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की ऑंखें में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुंदी होगी— इसमें संदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पॉँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह क्रोध दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई न कोई जरूर ही उसका पता देगा ओर वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने केक लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चहिए। क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले? यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या हानि है? दादा के पास रूपये तो हे ही, झक मार कर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रूपये का एक नोट उड़ा लिया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर ये सब रूपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रूपया जमा करके घर आयेगा; तो लोग कितने चकित हो जायेंगे!
उसने लिफाफे को फिर निकाला। उसमें कुल दो सौ रूपए के नोट थे। दो सौ में दूध की दूकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दूकान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है? लेकिन कितने ठाट से रहता हे! रूपयों की चरस उड़ा देता हे। एक-एक दॉँव पर दस-दस रूपए रख दतेा है, नफा न होता, तो वह ठाट कहॉँ से निभाता? इस आननद-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसी के पॉँव उखड़ जायें ओर वह लहरों में बह जाय।
उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर गबन का मुकदमा दायर हो गया।
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2
बम्बई के किले के मैदान में बैंड़ बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुंदर जवान कवायद कर रहे थे, जिस प्रकार हवा बादलों को नए-नए रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भॉँति सेना नायक सैनिकों को नए-नए रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भॉँति सेना नायक सैनिकों को नए-नए रूप में बना बिगाड़ रहा था।
जब कवायद खतम हो गयी, तो एक छरहरे डील का युवक नायक के सामने आकर खड़ा हो गया। नायक ने पूछा—क्या नाम है? सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा—जगतसिंह?
‘क्या चाहते हो।‘
‘फौज में भरती कर लीजिए।‘
‘मरने से तो नहीं डरते?’
‘बिलकुल नहीं—राजपूत हूँ।‘
‘बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।‘
‘इसका भी डर नहीं।‘
‘अदन जाना पड़ेगा।‘
‘खुशी से जाऊँगा।‘
कप्तान ने देखा, बला का हाजिर-जवाब, मनचला, हिम्मत का धनी जवान है, तुरंत फौज में भरती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर ज्यों-ज्यों जहाज आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रह जाता था। जब तक जमीन का किनारा नजर आता रहा, वह जहाज के डेक पर खड़ा अनुरक्त नेत्रों से उसे देखता रहा। जब वह भूमि-तट जल में विलीन हो गया तो उसने एक ठंडी सॉँस ली और मुँह ढॉँप कर रोने लगा। आज जीवन में पहली बर उसे प्रियजानों की याद आयी। वह छोटा-सा कस्बा, वह गॉँजे की दूकान, वह सैर-सपाटे, वह सुहूद-मित्रों के जमघट ऑंखों में फिरने लगे। कौन जाने, फिर कभी उनसे भेंट होगी या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आय, पानी में कूद पड़े।
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3
जगतसिंह को अदन में रहते तीन महीने गुजर गए। भॉँति-भॉँति की नवीनताओं ने कई दिन तक उसे मुग्ध किये रखा; लेकिनह पुराने संस्कार फिर जाग्रत होने लगे। अब कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता की याद आने लगी, जो पिता के क्रोध, बहनों के धिक्कार और स्वजनों के तिरस्कार में भी उसकी रक्षा करती थी। उसे वह दिन याद आया, जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके बचने की कोई आशा न थी, पर न तो पिता को उसकी कुछ चिन्ता थी, न बहनों को। केवल माता थी, जो रात की रात उसके सिरहाने बैठी अपनी मधुर, स्नेहमयी बातों से उसकी पीड़ा शांत करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को नीव रात्रि में रोते देखा था। वह स्वयं रोगों से जीर्झ हो रही थी; लेकिन उसकी सेवा-शुश्रूषा में वह अपनी व्यथा को ऐसी भूल गयी थी, मानो उसे कोई कष्ट ही नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे? वह इसी क्षोभ ओर नेराश्य में समुद्र-तट पर चला जाता और घण्टों अनंत जल-प्रवाह को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी, किंतु लज्जा और ग्लानिक कके कारण वह टालता जाता था। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिए क्षमा मॉँग। पत्र आदि से अन्त तक भक्ति से भरा हुआ थां अंत में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था—माता जी, मैने बड़े-बड़े उत्पात किय हें, आप लेग मुझसे तंग आ गयी थी, मै उन सारी भूलों के लिए सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ न कुछ करके दिखाऊँगा। तब कदाचित आपको मुझे अपना पुत्र कहने में संकोच न होगा। मुझे आर्शीवाद दीजिए कि अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूँ।‘
यह पत्र लिखकर उसने डाकखाने में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा; किंतु एक महीना गुजर गया और कोई जवाब न आया। आसका जी घबड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता—कहीं माता जी बीमार तो नहीं हैं? शायद दादा ने क्रोध-वश जवाब न लिखा होगा? कोई और विपत्ति तो नहीं आ पड़ी? कैम्प में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालू सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता; पर आप वह विक्षिप्तों की भॉँति प्रतिमा के सम्मुख जाकर बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बेठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकार, यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया थां जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया, तो उसकी सारी देह कॉँप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफाफा खोला ओर पत्र पढ़ा। लिखा था—‘तुम्हारे दादा को गबन के अभियोग में पॉँच वर्ष की सजा हो गई। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।‘
जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कह —‘हुजूर, मेरी मॉँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए।‘
कप्तान ने कठोर ऑंखों से देखकर कहा—अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।
‘तो मेरा इस्तीफा ले लीजिए।‘
‘अभी इस्तीफा नहीं लिया जा सकता।‘
‘मै अब एक क्षण भी नहीं रह सकता।‘
‘रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लाभ पर जाना पड़ेगा।‘
‘लड़ाई छिड़ गयी! आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा? हम लोग कब तक यहॉँ से जायेंगे?’
‘बहुत जल्द, दो ही चार दिनों में।‘
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4
चार वर्ष बीत गए। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजीमेंट में नहीं हैं। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस महिम में सबकी हिम्मते जवाब दे जाती है, उसे सर करना उसी का काम है। हल्ले और धावे में वह सदैव सबसे आगे रहता है, उसकी त्योरियों पर कभी मैल नहीं आता; उसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गंभीर, इतना प्रसन्नचित है कि सारे अफसर ओर मातहत उसकी बड़ाई करते हैं, उसका पुनर्जीतन-सा हो गया। उस पर अफसरों को इतना विश्वास है कि अब वे प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हें। जिससे पूछिए, वही वीर जगतसिंह की विरूदावली सुना देगा—कैसे उसने जर्मनों की मेगजीन में आग लगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से निकाला, कैसे अपने एक मातहत सिपाही को कंधे पर लेकर निल आया। ऐसा जान पड़ता है, उसे अपने प्राणों का मोह नही, मानो वह काल को खोजता फिरता हो!
लेकिन नित्य रात्रि के समय, जब जगतसिंह को अवकाश मिलता है, वह अपनी छोलदारी में अकेले बैठकर घरवालों की याद कर लिया करता है—दो-चार ऑंसू की बँदे अवश्य गिरा देता हे। वह प्रतिमास अपने वेतन का बड़ा भाग घर भेज देता है, और ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब कि वह माता को पत्र न लिखता हो। सबसे बड़ी चिंता उसे अपने पिता की है, जो आज उसी के दुष्कर्मो के कारण कारावास की यातना झेल रहे हैं। हाय! वह कौन दिन होगा, जब कि वह उनके चरणों पर सिर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा, और वह उसके सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देंगे?
5
सवा चार वर्ष बीत गए। संध्या का समय है। नैनी जेल के द्वार पर भीड़ लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मियाद पूरी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवाले आये हुए है; किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अँधेरी कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुक कर कमान हो गयी है। देह अस्थि-पंजर-मात्र रह गयी हे। ऐसा जान पड़ता हें, किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी भी मीयाद पूरी हो गयी है; लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। आये कौन? आने वाल था ही कौन?
एक बूढ़ किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसक कंधा हिलाया और बोला—कहो भगत, कोई घर से आया?
भक्तसिंह ने कंपित कंठ-स्वर से कहा—घर पर है ही कौन?
‘घर तो चलोगे ही?’
‘मेरे घर कहॉँ है?’
‘तो क्या यही पड़े रहोंगे?’
‘अगर ये लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा।‘
आज चार साल के बाद भगतसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीतन का सर्वनाश हो गया; आबरू मिट गयी; घर बरबाद हो गया, उसकी स्मृति भी असहय थी; किन्तु आज नैराश्य ओर दु:ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहार लियां न-जाने उस बेचारे की क्या दख्शा हुई। लाख बुरा है, तो भी अपना लड़का हे। खानदान की निशानी तो हे। मरूँगा तो चार ऑंसू तो बहायेगा; दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय! मैने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीं कियां जरा भी शरारत करता, तो यमदूत की भॉँति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बिना पैर धोये चले जाने के दंड में मेने उसे उलटा लटका दिया था। कितनी बार केवल जोर से बोलने पर मैंने उस वमाचे लगाये थे। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न कियां उसी का दंड है। जहॉँ प्रेम का बन्धन शिथिल हो, वहॉँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है?
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6
सबेरा हुआ। आशा की सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियॉँ कितनी कोमल और मधुर थीं, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का कलरव कितना मीठा! सारी प्रकृति आश के रंग में रंगी हुई थी; पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर धरे अंधकार था।
जेल का अफसर आया। कैदी एक पंक्ति में खड़े हुए। अफसर एक-एक का नाम लेकर रिहाई का परवाना देने लगा। कैदियों के चेहरे आशा से प्रफुलित थे। जिसका नाम आता, वह खुश-खुश अफसर के पास जात, परवाना लेता, झुककर सलाम करता और तब अपने विपत्तिकाल के संगियों से गले मिलकर बाहर निकल जाता। उसके घरवाले दौड़कर उससे लिपट जाते। कोई पैसे लुटा रहा था, कहीं मिठाइयॉँ बॉँटी जा रही थीं, कहीं जेल के कर्मचारियों को इनाम दिया जा रहा था। आज नरक के पुतले विनम्रता के देवता बने हुए थे।
अन्त में भक्तसिंह का नाम आया। वह सिर झुकाये आहिस्ता-आहिस्ता जेलर के पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले, मानो सामने कोई समुद्र लहरें मार रहा है। द्वार से बाहर निकल कर वह जमीन पर बैठ गये। कहॉँ जायँ?
सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार, जेल की ओर आते देखा। उसकी देह पर खाकी वरदी थी, सिर पर कारचोबी साफा। अजीब शान से घोड़े पर बैठा हुआ था। उसके पीछे-पीछे एक फिटन आ रही थी। जेल के सिपाहियों ने अफसर को देखते ही बन्दूकें सँभाली और लाइन में खड़े हाकर सलाम किया।
भक्तससिंह ने मन में कहा—एक भाग्यवान वह है, जिसके लिए फिटन आ रही है; ओर एक अभागा मै हूँ, जिसका कहीं ठिकाना नहीं।
फौजी अफसर ने इधर-उधर देखा और घोड़े से उतर कर सीधे भक्तसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया।
भक्तसिंह ने उसे ध्यान से देखा और तब चौंककर उठ खड़े हुए और बोले—अरे! बेटा जगतसिंह!
जगतसिंह रोता हुआ उनके पैरों पर गिर पड़ा।
एक आंच की कसर [ Hindi Stories by Munshi Premchand]
सारे नगर में महाशय यशोदानन्द का बखान हो रहा था। नगर ही में नही, समस्त प्रान्त में उनकी कीर्ति की जाती थी, समाचार पत्रों में टिप्पणियां हो रही थी, मित्रो से प्रशंसापूर्ण पत्रों का तांता लगा हुआ था। समाज-सेवा इसको कहते है ! उन्नत विचार के लोग ऐसा ही करते है। महाशय जी ने शिक्षित समुदाय का मुख उज्जवल कर दिया। अब कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि हमारे नेता केवल बात के धनी है, काम के धनी नही है ! महाशय जी चाहते तो अपने पुत्र के लिए उन्हें कम से कम बीज हतार रूपये दहेज में मिलते, उस पर खुशामद घाते में ! मगर लाला साहब ने सिद्वांत के सामने धन की रत्ती बराबर परवा न की और अपने पुत्र का विवाह बिना एक पाई दहेज लिए स्वीकार किया। वाह ! वाह ! हिम्मत हो तो ऐसी हो, सिद्वांत प्रेम हो तो ऐसा हो, आदर्श-पालन हो तो ऐसा हो । वाह रे सच्चे वीर, अपनी माता के सच्चे सपूत, तूने वह कर दिखाया जो कभी किसी ने किया था। हम बडे गर्व से तेरे सामने मस्तक नवाते है।
महाशय यशोदानन्द के दो पुत्र थे। बडा लडका पढ लिख कर फाजिल हो चुका था। उसी का विवाह तय हो रहा था और हम देख चुके है, बिना कुछ दहेज लिये।
आज का तिलक था। शाहजहांपुर स्वामीदयाल तिलक ले कर आने वाले थे। शहर के गणमान्य सज्जनों को निमन्त्रण दे दिये गये थे। वे लोग जमा हो गये थे। महफिल सजी7 हुई थी। एक प्रवीण सितारिया अपना कौशल दिखाकर लोगो को मुग्ध कर रहा था। दावत को सामान भी तैयार था ? मित्रगण यशोदानन्द को बधाईयां दे रहे थे।
एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर दिया !
दूसरे—कमाल ! यह कहिए कि झण्डे गाड दिये। अब तक जिसे देखा मंच पर व्याख्यान झाडते ही देखा। जब काम करने का अवसर आता था तो लोग दुम लगा लेते थे।
तीसरे—कैसे-कैसे बहाने गढे जाते है—साहब हमें तो दहेज से सख्त नफरत है यह मेरे सिद्वांत के विरुद्व है, पर क्या करुं क्या, बच्चे की अम्मीजान नहीं मानती। कोई अपने बाप पर फेंकता है, कोई और किसी खर्राट पर।
चौथे—अजी, कितने तो ऐसे बेहया है जो साफ-साफ कह देते है कि हमने लडके को शिक्षा – दीक्षा में जितना खर्च किया है, वह हमें मिलना चाहिए। मानो उन्होने यह रूपये उन्होन किसी बैंक में जमा किये थे।
पांचवें—खूब समझ रहा हूं, आप लोग मुझ पर छींटे उडा रहे है।
इसमें लडके वालों का ही सारा दोष है या लडकी वालों का भी कुछ है।
पहले—लडकी वालों का क्या दोष है सिवा इसके कि वह लडकी का बाप है।
दूसरे—सारा दोष ईश्वर का जिसने लडकियां पैदा कीं । क्यों ?
पांचवे—मैं चयह नही कहता। न सारा दोष लडकी वालों का हैं, न सारा दोष लडके वालों का। दोनों की दोषी है। अगर लडकी वाला कुछ न दे तो उसे यह शिकायत करने का कोई अधिकार नही है कि डाल क्यों नही लायें, सुंदर जोडे क्यों नही लाये, बाजे-गाजे पर धूमधाम के साथ क्यों नही आये ? बताइए !
चौथे—हां, आपका यह प्रश्न गौर करने लायक है। मेरी समझ में तो ऐसी दशा में लडकें के पिता से यह शिकायत न होनी चाहिए।
पांचवें---तो यों कहिए कि दहेज की प्रथा के साथ ही डाल, गहनें और जोडो की प्रथा भी त्याज्य है। केवल दहेज को मिटाने का प्रयत्न करना व्यर्थ है।
यशोदानन्द----यह भी Lame excuse1 है। मैंने दहेज नही लिया है।, लेकिन क्या डाल-गहने ने ले जाऊंगा।
पहले---महाशय आपकी बात निराली है। आप अपनी गिनती हम दुनियां वालों के साथ क्यों करते हैं ? आपका स्थान तो देवताओं के साथ है।
दूसरा----20 हजार की रकम छोड दी ? क्या बात है।
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१------थोथी दलील
यशोदानन्द---मेरा तो यह निश्चय है कि हमें सदैव principles 1 पर स्थिर रहना चाहिए। principal 2 के सामने money3 की कोई value4 नही है। दहेज की कुप्रथा पर मैंने खुद कोई व्याख्यान नही दिया, शायद कोई नोट तक नही लिखा। हां, conference5 में इस प्रस्ताव को second6 कर चुका हूं। मैं उसे तोडना भी चाहूं तो आत्मा न तोडने देगी। मैं सत्य कहता हूं, यह रूपये लूं तो मुझे इतनी मानसिक वेदना होगी कि शायद मैं इस आघात स बच ही न सकूं।
पांचवें---- अब की conference आपको सभापति न बनाये तो उसका घोर अन्याय है।
यशोदानन्द—मैंने अपनी duty 7 कर दीउसका recognition8 हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नही।
इतने में खबर हुई कि महाशय स्वामीदयाल आ पंहुचे । लोग उनका अभिवादन करने को तैयार हुए, उन्हें मसनद पर ला बिठाया और तिलक का संस्कार आरंम्भ हो गया। स्वामीदयाल ने एक ढाक के पत्तल पर नारियल, सुपारी, चावल पान आदि वस्तुएं वर के सामने रखीं। ब्राहृम्णों ने मंत्र पढें हवन हुआ और वर के माथे पर तिलक लगा दिया गया। तुरन्त घर की स्त्रियो ने मंगलाचरण गाना शुरू किया। यहां पहफिल में महाशय यशोदानन्द ने एक चौकी पर खडे होकर दहेज की कुप्रथा पर व्याख्यान देना शुरू किया। व्याख्यान पहले से लिखकर तैयार कर लिया गया था। उन्होनें दहेज की ऐतिहासिक व्याख्या की थी।
पूर्वकाल में दहेज का नाम भी न थ। महाशयों ! कोई जानता ही न था कि दहेज या ठहरोनी किस चिडिया का नाम है। सत्य मानिए, कोई जानता ही न था कि ठहरौनी है क्या चीज, पशु या पक्षी, आसमान में या जमीन में, खाने में या पीने में । बादशाही जमाने में इस प्रथा की बुंनियाद पडी। हमारे युवक सेनाओं में सम्मिलित होने लगे । यह वीर लोग थें, सेनाओं में जाना गर्व समझते थे। माताएं अपने दुलारों को अपने हाथ से शस्त्रों से सजा कर रणक्षेत्र भेजती थीं। इस भॉँति युवकों की संख्या कम होने लगी और लडकों का मोल-तोल शुरू हुआ। आज यह नौवत आ गयी है कि मेरी इस तुच्छ –महातुच्छ सेवा पर पत्रों में टिप्पणियां हो रही है मानों मैंने कोई असाधारण काम किया है। मै कहता हूं ; अगर आप संसार में जीवित रहना चाहते हो तो इस प्रथा क तुरन्त अन्त कीजिए। www.mithilesh2020.tumblr.com
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१----सिद्वांतों । २----सिद्वांत 3-----धन । 4-----मूल्य ।
5--- सभा । 6---अनुमोदन । ७ कर्तव्य । ८----कदर ।
एक महाशय ने शंका की----क्या इसका अंत किये बिना हम सब मर जायेगें ?
यशोदानन्द-अगर ऐसा होता है तो क्या पूछना था, लोगो को दंड मिल जाता और वास्तव में ऐसा होना चाहिए। यह ईश्वर का अत्याचार है कि ऐसे लोभी, धन पर गिरने वाले, बुर्दा-फरोश, अपनी संतान का विक्रय करने वाले नराधम जीवित है। और समाज उनका तिरस्कार नही करता । मगर वह सब बुर्द-फरोश है------इत्यादि।
व्याख्यान बहुंतद लम्बा ओर हास्य भरा हुआ था। लोगों ने खूब वाह-वाह की । अपना वक्तव्य समाप्त करने के बाद उन्होने अपने छोटे लडके परमानन्द को, जिसकी अवस्था ७ वर्ष की थी, मंच पर खडा किया। उसे उन्होनें एक छोटा-सा व्याख्यान लिखकर दे रखा था। दिखाना चाहते थे कि इस कुल के छोटे बालक भी कितने कुशाग्र बुद्वि है। सभा समाजों में बालकों से व्याख्यान दिलाने की प्रथा है ही, किसी को कुतूहल न हुआ।बालक बडा सुन्दर, होनहार, हंसमुख था। मुस्कराता हुआ मंच पर आया और एक जेब से कागज निकाल कर बडे गर्व के साथ उच्च स्वर में पढने लगा------
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प्रिय बंधुवर,
नमस्कार !
आपके पत्र से विदित होता है कि आपको मुझ पर विश्वास नही है। मैं ईश्वर को साक्षी करके धन आपकी सेवा में इतनी गुप्त रीति से पहुंचेगा कि किसी को लेशमात्र भी सन्देह न होगा । हां केवल एक जिज्ञासा करने की धृष्टता करता हूं। इस व्यापार को गुप्त रखने से आपको जो सम्मान और प्रतिष्ठा – लाभ होगा और मेरे निकटवर्ती में मेरी जो निंदा की जाएगी, उसके उपलक्ष्य में मेरे साथ क्या रिआयत होगी ? मेरा विनीत अनुरोध है कि २५ में से ५ निकालकर मेरे साथ न्याय किया जाय...........।
महाशय श्योदानन्द घर में मेहमानों के लिए भोजन परसने का आदेश करने गये थे। निकले तो यह बाक्य उनके कानों में पडा—२५ में से ५ मेरे साथ न्याय किया कीजिए ।‘ चेहरा फक हो गया, झपट कर लडके के पास गये, कागज उसके हाथ से छीन लिया और बौले--- नालायक, यह क्या पढ रहा है, यह तो किसी मुवक्किल का खत है जो उसने अपने मुकदमें के बारें में लिखा था। यह तू कहां से उठा लाया, शैतान जा वह कागज ला, जो तुझे लिखकर दिया गया था।
एक महाशय-----पढने दीजिए, इस तहरीर में जो लुत्फ है, वह किसी दूसरी तकरीर में न होगा।
दूसरे---जादू वह जो सिर चढ के बोलें !
तीसरे—अब जलसा बरखास्त कीजिए । मैं तो चला।
चौथै—यहां भी चलतु हुए।
यशोदानन्द—बैठिए-बैठिए, पत्तल लगाये जा रहे है।
पहले—बेटा परमानन्द, जरा यहां तो आना, तुमने यह कागज कहां पाया ?
परमानन्द---बाबू जी ही तो लिखकर अपने मेज के अन्दर रख दिया था। मुझसे कहा था कि इसे पढना। अब नाहक मुझसे खफा रहे है।
यशोदानन्द---- वह यह कागज था कि सुअर ! मैंने तो मेज के ऊपर ही रख दिया था। तूने ड्राअर में से क्यों यह कागज निकाला ?
परमानन्द---मुझे मेज पर नही मिला ।
यशोदान्नद---तो मुझसे क्यों नही कहा, ड्राअर क्यों खोला ? देखो, आज ऐसी खबर लेता हूं कि तुम भी याद करोगे।
पहले यह आकाशवाणी है।
दूसरे----इस को लीडरी कहते है कि अपना उल्लू सीधा करो और नेकनाम भी बनो।
तीसरे----शरम आनी चाहिए। यह त्याग से मिलता है, धोखेधडी से नही।
चौथे---मिल तो गया था पर एक आंच की कसर रह गयी।
पांचवे---ईश्वर पांखंडियों को यों ही दण्ड देता है
यह कहते हुए लोग उठ खडे हुए। यशोदानन्द समझ गये कि भंडा फूट गया, अब रंग न जमेगा। बार-बार परमानन्द को कुपित नेत्रों से देखते थे और डंडा तौलकर रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-जिताई बाजी खो दी, मुंह में कालिख लग गयी, सिर नीचा हो गया। गोली मार देने का काम किया है।
उधर रास्ते में मित्र-वर्ग यों टिप्पणियां करते जा रहे थे-------
एक ईश्वर ने मुंह में कैसी कालिमा लगायी कि हयादार होगा तो अब सूरत न दिखाएगा।
दूसरा--ऐसे-ऐसे धनी, मानी, विद्वान लोग ऐसे पतित हो सकते है। मुझे यही आश्चर्य है। लेना है तो खुले खजाने लो, कौन तुम्हारा हाथ पकडता है; यह क्या कि माल चुपके-चुपके उडाओं और यश भी कमाओं !
तीसरा--मक्कार का मुंह काला !
चौथा—यशोदानन्द पर दया आ रही है। बेचारी ने इतनी धूर्तता की, उस पर भी कलई खुल ही गयी। बस एक आंच की कसर रह गई।
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#एक आंच की कसर #premchand ki kahaniyaan #ek aanch ki kasar
हिंदू समाज की वैवाहिक प्रथा इतनी दुषित, इतनी चिंताजनक, इतनी भयंकर हो गयी है कि कुछ समझ में नहीं आता, उसका सुधार क्योंकर हो। बिरलें ही ऐसे माता−पिता होंगे जिनके सात पुत्रों के बाद एक भी कन्या उत्पन्न हो जाय तो वह सहर्ष उसका स्वागत करें। कन्या का जन्म होते ही उसके विवाह की चिंता सिर पर सवार हो जाती है और आदमी उसी में डुबकियां खाने लगता है। अवस्था इतनी निराशमय और भयानक हो गई है कि ऐसे माता−पिताओं की कमी नहीं है जो कन्या की मृत्यु पर ह्रदय से प्रसन्न होते है, मानों सिर से बाधा टली। इसका कारण केवल यही है कि देहज की दर, दिन दूनी रात चौगुनी, पावस−काल के जल−गुजरे कि एक या दो हजारों तक नौबत पहुंच गई है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि एक या दो हजार रुपये दहेज केवल बड़े घरों की बात थी, छोटी−छोटी शादियों पांच सौ से एक हजार तक तय हो जाती थीं; अब मामुली−मामुली विवाह भी तीन−चार हजार के नीचे तय नहीं होते । खर्च का तो यह हाल है और शिक्षित समाज की निर्धनता और दरिद्रता दिन बढ़ती जाती है। इसका अन्त क्या होगा ईश्वर ही जाने। बेटे एक दर्जन भी हों तो माता−पिता का चिंता नहीं होती। वह अपने ऊपर उनके विवाह−भार का अनिवार्य नहीं समझता, यह उसके लिए ‘कम्पलसरी’ विषय नहीं, ‘आप्शनल’ विषय है। होगा तों कर देगें; नही कह देंगे−−बेटा, खाओं कमाओं, कमाई हो तो विवाह कर लेना। बेटों की कुचरित्रता कलंक की बात नहीं समझी जाती; लेकिन कन्या का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उससे भागकर कहां जायेगें ? अगर विवाह में विलम्ब हुआ और कन्या के पांव कहीं ऊंचे नीचे पड़ गये तो फिर कुटुम्ब की नाक कट गयी; वह पतित हो गया, टाट बाहर कर दिया गया। अगर वह इस दुर्घटना को सफलता के साथ गुप्त रख सका तब तो कोई बात नहीं; उसकों कलंकित करने का किसी का साहस नहीं; लेकिन अभाग्यवश यदि वह इसे छिपा न सका, भंडाफोड़ हो गया तो फिर माता−पिता के लिए, भाई−बंधुओं के लिए संसार में मुंह दिखाने को नहीं रहता। कोई अपमान इससे दुस्सह, कोई विपत्ति इससे भीषण नहीं। किसी भी व्याधि की इससे भयंकर कल्पना नहीं की जा सकती। लुत्फ तो यह है कि जो लोग बेटियों के विवाह की कठिनाइयों को भोगा चुके होते है वहीं अपने बेटों के विवाह के अवसर पर बिलकुल भुल जाते है कि हमें कितनी ठोकरें खानी पड़ी थीं, जरा भी सहानुभूति नही प्रकट करतें, बल्कि कन्या के विवाह में जो तावान उठाया था उसे चक्र−वृद्धि ब्याज के साथ बेटे के विवाह में वसूल करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं। कितने ही माता−पिता इसी चिंता में ग्रहण कर लेता है, कोई बूढ़े के गले कन्या का मढ़ कर अपना गला छुड़ाता है, पात्र−कुपात्र के विचार करने का मौका कहां, ठेलमठेल है।
मुंशी गुलजारीलाल ऐसे ही हतभागे पिताओं में थे। यों उनकी स्थिति बूरी न थी। दो−ढ़ाई सौ रुपये महीने वकालत से पीट लेते थे, पर खानदानी आदमी थे, उदार ह्रदय, बहुत किफायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी। सम्बन्धियों का आदर−सत्कार न करें तो नहीं बनता, मित्रों की खातिरदारी न करें तो नही बनता। फिर ईश्वर के दिये हुए दो पुत्र थे, उनका पालन−पोषण, शिक्षण का भार था, क्या करते ! पहली कन्या का विवाह टेढ़ी खीर हो रहा था। यह आवश्यक था कि विवाह अच्छे घराने में हो, अन्यथा लोग हंसेगे और अच्छे घराने के लिए कम−से−कम पांच हजार का तखमीना था। उधर पुत्री सयानी होती जाती थी। वह अनाज जो लड़के खाते थे, वह भी खाती थी; लेकिन लड़कों को देखो तो जैसे सूखों का रोग लगा हो और लड़की शुक्ल पक्ष का चांद हो रही थी। बहुत दौड़−धूप करने पर बचारे को एक लड़का मिला। बाप आबकारी के विभाग में ४०० रु० का नौकर था, लड़का सुशिक्षित। स्त्री से आकार बोले, लड़का तो मिला और घरबार−एक भी काटने योग्य नहीं; पर कठिनाई यही है कि लड़का कहता है, मैं अपना विवाह न करुंगा। बाप ने समझाया, मैने कितना समझाया, औरों ने समझाया, पर वह टस से मस नहीं होता। कहता है, मै कभी विवाह न करुंगा। समझ में नहीं आता, विवाह से क्यों इतनी घृणा करता है। कोई कारण नहीं बतलाता, बस यही कहता है, मेरी इच्छा। मां बाप का एकलौता लड़का है। उनकी परम इच्छा है कि इसका विवाह हो जाय, पर करें क्या? यों उन्होने फलदान तो रख लिया है पर मुझसे कह दिया है कि लड़का स्वभाव का हठीला है, अगर न मानेगा तो फलदान आपको लौटा दिया जायेगा।
स्त्री ने कहा−−तुमने लड़के को एकांत में बुलावकर पूछा नहीं?
गुलजारीलाल−−बुलाया था। बैठा रोता रहा, फिर उठकर चला गया। तुमसे क्या कहूं, उसके पैरों पर गिर पड़ा; लेकिन बिना कुछ कहे उठाकर चला गया।
स्त्री−−देखो, इस लड़की के पीछे क्या−क्या झेलना पड़ता है?
गुलजारीलाल−−कुछ नहीं, आजकल के लौंडे सैलानी होते हैं। अंगरेजी पुस्तकों में पढ़ते है कि विलायत में कितने ही लोग अविवाहित रहना ही पसंद करते है। बस यही सनक सवार हो जाती है कि निर्द्वद्व रहने में ही जीवन की सुख और शांति है। जितनी मुसीबतें है वह सब विवाह ही में है। मैं भी कालेज में था तब सोचा करता था कि अकेला रहूंगा और मजे से सैर−सपाटा करुंगा।
स्त्री−−है तो वास्तव में बात यही। विवाह ही तो सारी मुसीबतों की जड़ है। तुमने विवाह न किया होता तो क्यों ये चिंताएं होतीं ? मैं भी क्वांरी रहती तो चैन करती।
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२
इसके एक महीना बाद मुंशी गुलजारीलाल के पास वर ने यह पत्र लिखा−−
‘पूज्यवर,
सादर प्रणाम।
मैं आज बहुत असमंजस में पड़कर यह पत्र लिखने का साहस कर रहा हूं। इस धृष्टता को क्षमा कीजिएगा।
आपके जाने के बाद से मेरे पिताजी और माताजी दोनों मुझ पर विवाह करने के लिए नाना प्रकार से दबाव डाल रहे है। माताजी रोती है, पिताजी नाराज होते हैं। वह समझते है कि मैं अपनी जिद के कारण विवाह से भागता हूं। कदाचिता उन्हे यह भी सन्देह हो रहा है कि मेरा चरित्र भ्रष्ट हो गया है। मैं वास्तविक कारण बताते हुए डारता हूं कि इन लोगों को दु:ख होगा और आश्चर्य नहीं कि शोक में उनके प्राणों पर ही बन जाय। इसलिए अब तक मैने जो बात गुप्त रखी थी, वह आज विवश होकर आपसे प्रकट करता हूं और आपसे साग्रह निवेदन करता हूं कि आप इसे गोपनीय समझिएगा और किसी दशा में भी उन लोगों के कानों में इसकी भनक न पड़ने दीजिएगा। जो होना है वह तो होगा है, पहले ही से क्यों उन्हे शोक में डुबाऊं। मुझे ५−६ महीनों से यह अनुभव हो रहा है कि मैं क्षय रोग से ग्रसित हूं। उसके सभी लक्षण प्रकट होते जाते है। डाक्टरों की भी यही राय है। यहां सबसे अनुभवी जो दो डाक्टर हैं, उन दोनों ही से मैने अपनी आरोग्य−परीक्षा करायी और दोनो ही ने स्पष्ट कहा कि तुम्हे सिल है। अगर माता−पिता से यह कह दूं तो वह रो−रो कर मर जायेगें। जब यह निश्चय है कि मैं संसार में थोड़े ही दिनों का मेहमान हूं तो मेरे लिए विवाह की कल्पना करना भी पाप है। संभव है कि मैं विशेष प्रयत्न करके साल दो साल जीवित रहूं, पर वह दशा और भी भयंकर होगी, क्योकि अगर कोई संतान हुई तो वह भी मेरे संस्कार से अकाल मृत्यु पायेगी और कदाचित् स्त्री को भी इसी रोग−राक्षस का भक्ष्य बनना पड़े। मेरे अविवाहित रहने से जो बीतेगी, मुझ पर बीतेगी। विवाहित हो जाने से मेरे साथ और कई जीवों का नाश हो जायगा। इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे इस बन्धन में डालने के लिए आग्रह न कीजिए, अन्यथा आपको पछताना पड़ेगा।
सेवक
‘हजारीलाल।’
पत्र पढ़कर गुलजारीलाल ने स्त्री की ओर देखा और बोले−−इस पत्र के विषय में तुम्हारा क्या विचार हैं।
स्त्री−−मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि उसने बहाना रचा है।
गुलजारीलाल−−बस−बस, ठीक यही मेरा भी विचार है। उसने समझा है कि बीमारी का बहाना कर दूंगा तो आप ही हट जायेंगे। असल में बीमारी कुछ नहीं। मैने तो देखा ही था, चेहरा चमक रहा था। बीमार का मुंह छिपा नहीं रहता।
स्त्री−−राम नाम ले के विवाह करो, कोई किसी का भाग्य थोड़े ही पढ़े बैठा है।
गुलजारीलाल−−यही तो मै सोच रहा हूं।
स्त्री−−न हो किसी डाक्टर से लड़के को दिखाओं । कहीं सचमुच यह बीमारी हो तो बेचारी अम्बा कहीं की न रहे।
गुलजारीलाल−तुम भी पागल हो क्या? सब हीले−हवाले हैं। इन छोकरों के दिल का हाल मैं खुब जानता हूं। सोचता होगा अभी सैर−सपाटे कर रहा हूं, विवाह हो जायगा तो यह गुलछर्रे कैसे उड़ेगे!
स्त्री−−तो शुभ मुहूर्त देखकर लग्न भिजवाने की तैयारी करो।
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३
हजारीलाल बड़े धर्म−सन्देह में था। उसके पैरों में जबरदस्ती विवाह की बेड़ी डाली जा रही थी और वह कुछ न कर सकता था। उसने ससुर का अपना कच्चा चिट्ठा कह सुनाया; मगर किसी ने उसकी बालों पर विश्वास न किया। मां−बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस न होता था। न जाने उनके दिल पर क्या गुजरे, न जाने क्या कर बैठें? कभी सोचता किसी डाक्टर की शहदत लेकर ससूर के पास भेज दूं, मगर फिर ध्यान आता, यदि उन लोगों को उस पर भी विश्वास न आया, तो? आजकल डाक्टरी से सनद ले लेना कौन−सा मुश्किल काम है। सोचेंगे, किसी डाक्टर को कुछ दे दिलाकर लिखा लिया होगा। शादी के लिए तो इतना आग्रह हो रहा था, उधर डाक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि अगर तुमने शादी की तो तुम्हारा जीवन−सुत्र और भी निर्बल हो जाएगा। महीनों की जगह दिनों में वारा−न्यारा हो जाने की सम्भावाना है।
लग्न आ चुकी थी। विवाह की तैयारियां हो रही थीं, मेहमान आते−जाते थे और हजारीलाल घर से भागा−भागा फिरता था। कहां चला जाऊं? विवाह की कल्पना ही से उसके प्राण सूख जाते थे। आह ! उस अबला की क्या गति होगी ? जब उसे यह बात मालूम होगी तो वह मुझे अपने मन में क्या कहेगी? कौन इस पाप का प्रायश्चित करेगा ? नहीं, उस अबला पर घोर अत्याचार न करुंगा, उसे वैधव्य की आग में न जलाऊंगा। मेरी जिन्दगी ही क्या, आज न मरा कल मरुंगा, कल नहीं तो परसों, तो क्यों न आज ही मर जाऊं। आज ही जीवन का और उसके साथ सारी चिंताओं को, सारी विपत्तियों का अन्त कर दूं। पिता जी रोयेंगे, अम्मां प्राण त्याग देंगी; लेकिन एक बालिका का जीवन तो सफल हो जाएगा, मेरे बाद कोई अभागा अनाथ तो न रोयेगा।
क्यों न चलकर पिताजी से कह दूं? वह एक−दो दिन दु:खी रहेंगे, अम्मां जी दो−एक रोज शोक से निराहार रह जायेगीं, कोई चिंता नहीं। अगर माता−पिता के इतने कष्ट से एक युवती की प्राण−रक्षा हो जाए तो क्या छोटी बात है?
यह सोचकर वह धीरे से उठा और आकर पिता के सामने खड़ा हो गया।
रात के दस बज गये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। आज उन्हे सारा दिन दौड़ते गुजरा था। शामियाना तय किया; बाजे वालों को बयाना दिया; आतिशबाजी, फुलवारी आदि का प्रबन्ध किया। घंटो ब्राहमणों के साथ सिर मारते रहे, इस वक्त जरा कमर सीधी कर रहें थे कि सहसा हजारीलाल को सामने देखकर चौंक पड़ें। उसका उतरा हुआ चेहरा सजल आंखे और कुंठित मुख देखा तो कुछ चिंतित होकर बोले−−क्यों लालू, तबीयत तो अच्छी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।
हजारीलाल−−मै आपसे कुछ कहना चाहता हूं; पर भय होता है कि कहीं आप अप्रसन्न न हों।
दरबारीलाल−−समझ गया, वही पुरानी बात है न ? उसके सिवा कोई दूसरी बात हो शौक से कहो।
हजारीलाल−−खेद है कि मैं उसी विषय में कुछ कहना चाहता हूं।
दरबारीलाल−−यही कहना चाहता हो न मुझे इस बन्धन में न डालिए, मैं इसके अयोग्य हूं, मै यह भार सह नहीं सकता, बेड़ी मेरी गर्दन को तोड़ देगी, आदि या और कोई नई बात ?
हजारीलाल−−जी नहीं नई बात है। मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिए सब प्रकार तैयार हूं; पर एक ऐसी बात है, जिसे मैने अब तक छिपाया था, उसे भी प्रकट कर देना चाहता हूं। इसके बाद आप जो कुछ निश्चय करेंगे उसे मैं शिरोधार्य करुंगा।
हजारीलाल ने बड़े विनीत शब्दों में अपना आशय कहा, डाक्टरों की राय भी बयान की और अन्त में बोलें−−ऐसी दशा में मुझे पूरी आशा है कि आप मुझे विवाह करने के लिए बाध्य न करेंगें।
दरबारीलाल ने पुत्र के मुख की और गौर से देखा, कहे जर्दी का नाम न था, इस कथन पर विश्वास न आया; पर अपना अविश्वास छिपाने और अपना हार्दिक शोक प्रकट करने के लिए वह कई मिनट तक गहरी चिंता में मग्न रहे। इसके बाद पीड़ित कंठ से बोले−−बेटा, इस इशा में तो विवाह करना और भी आवश्यक है। ईश्वर न करें कि हम वह बुरा दिन देखने के लिए जीते रहे, पर विवाह हो जाने से तुम्हारी कोई निशानी तो रह जाएगी। ईश्वर ने कोई संतान दे दी तो वही हमारे बुढ़ापे की लाठी होगी, उसी का मुंह देखरेख कर दिल को समझायेंगे, जीवन का कुछ आधार तो रहेगा। फिर आगे क्या होगा, यह कौन कह सकता है ? डाक्टर किसी की कर्म−रेखा तो नहीं पढ़ते, ईश्वर की लीला अपरम्पार है, डाक्टर उसे नहीं समझ सकते । तुम निश्चिंत होकर बैठों, हम जो कुछ करते है, करने दो। भगवान चाहेंगे तो सब कल्याण ही होगा।
हजारीलाल ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। आंखे डबडबा आयीं, कंठावरोध के कारण मुंह तक न खोल सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे लेट रहा।
तीन दिन और गुजर गये, पर हजारीलाल कुछ निश्चय न कर सका। विवाह की तैयारियों में रखे जा चुके थे। मंत्रेयी की पूजा हो चूकी थी और द्वार पर बाजों का शोर मचा हुआ था। मुहल्ले के लड़के जमा होकर बाजा सुनते थे और उल्लास से इधर−उधर दौड़ते थे।
संध्या हो गयी थी। बरात आज रात की गाड़ी से जाने वाली थी। बरातियों ने अपने वस्त्राभूष्ण पहनने शुरु किये। कोई नाई से बाल बनवाता था और चाहता था कि खत ऐसा साफ हो जाय मानों वहां बाल कभी थे ही नहीं, बुढ़े अपने पके बाल को उखड़वा कर जवान बनने की चेष्टा कर रहे थे। तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और हजारीलाल बगीचे मे एक वृक्ष के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, क्या करुं?
अन्तिम निश्चय की घड़ी सिर पर खड़ी थी। अब एक क्षण भी विल्म्ब करने का मौका न था। अपनी वेदना किससे कहें, कोई सुनने वाला न था।
उसने सोचा हमारे माता−पिता कितने अदुरदर्शी है, अपनी उमंग में इन्हे इतना भी नही सूझता कि वधु पर क्या गुजरेगी। वधू के माता−पिता कितने अदूरर्शी है, अपनी उमंग मे भी इतने अन्धे हो रहे है कि देखकर भी नहीं देखते, जान कर नहीं जानते।
क्या यह विवाह है? कदापि नहीं। यह तो लड़की का कुएं में डालना है, भाड़ मे झोंकना है, कुंद छुरे से रेतना है। कोई यातना इतनी दुस्सह, कर अपनी पुत्री का वैधव्य् के अग्नि−कुंड में डाल देते है। यह माता−पिता है? कदापि नहीं। यह लड़की के शत्रु है, कसाई है, बधिक हैं, हत्यारे है। क्या इनके लिए कोई दण्ड नहीं ? जो जान−बूझ कर अपनी प्रिय संतान के खुन से अपने हाथ रंगते है, उसके लिए कोई दण्ड नहीं? समाज भी उन्हे दण्ड नहीं देता, कोई कुछ नहीं कहता। हाय !
यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल दिया। उसके मुख पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्म−बलिदान से इस कष्ट का निवारण करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। उसे मृत्यु का लेश−मात्र भी भय न था। वह उस दशा का पहुंच गया था जब सारी आशाएं मृत्यु पर ही अवलम्बित हो जाती है।
उस दिन से फिर किसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देखी। मालूम नहीं जमीन खा गई या आसमान। नादियों मे जाल डाले गए, कुओं में बांस पड़ गए, पुलिस में हुलिया गया, समाचार−पत्रों मे विज्ञप्ति निकाली गई, पर कहीं पता न चला ।
कई हफ्तो के बाद, छावनी रेलवे से एक मील पश्चिम की ओर सड़क पर कुछ हड्डियां मिलीं। लोगो को अनुमान हुआ कि हजारीलाल ने गाड़ी के नीचे दबकर जान दी, पर निश्चित रुप से कुछ न मालुम हुआ।
भादों का महीना था और तीज का दिन था। घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्यवती रमणियां सोलहो श्रृंगार किए गंगा−स्नान करने जा रही थीं। अम्बा स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खड़ी वंदना कर रही थी। पतिगृह में उसे यह पहली ही तीज थी, बड़ी उमंगो से व्रत रखा था। सहसा उसके पति ने अन्दर आ कर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला−−मुंशी दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते है, यह उनके यहां से तुम्हारे लिए तीज पठौनी आयी है। अभी डाकिया दे गया है।
यह कहकर उसने एक पार्सल चारपाई पर रख दिया। दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आंखे सजल हो गयीं। वह लपकी हुयी आयी और पार्सल स्मृतियां जीवित हो गयीं, ह्रदय में हजारीलाल के प्रति श्रद्धा का एक उद्−गार−सा उठ पड़ा। आह! यह उसी देवात्मा के आत्मबलिदान का पुनीत फल है कि मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ। ईश्वर उन्हे सद्−गति दें। वह आदमी नहीं, देवता थे, जिसने अपने कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक समर्पण कर दिए।
पति ने पूछा−−दरबारी लाल तुम्हारी चचा हैं।
अम्बा−−हां।
पति−−इस पत्र में हजारीलाल का नाम लिखा है, यह कौन है?
अम्बा−−यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे हैं।
पति−−तुम्हारे चचरे भाई ?
अम्बा−−नहीं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मुझे अथाह जल में डुबने से बचाने वाले, मुझे सौभाग्य का वरदान देने वाले।
पति ने इस भाव कहा मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो−−आह! मैं समझ गया। वास्तव में वह मनुष्य नहीं देवता थे।
एक बार एक बहू अपनी सास के पास जाती है और कहती है, माँ जी कल रात मेरा उनसे झगड़ा हो गया।
सास: कोई बात नहीं। ये तो हर पति पत्नी में होता रहता है।
बहू: वो तो मुझे भी पता है, पर ये बताइये अब लाश का क्या करना है।
१.यमराज-यमुना :-यमराज और यमुना दोनों सूर्यदेव की जुडवाँ सन्तान थे। यमुना जो कि एक पावन नदी में बदल गई और यमराज जिसको मृत्यु के देवता के नाम से जाना जाता है। कहते हैं एक बार यमुना ने अपने भाई यमराज को अपने घर बुलाया और उसकी आरती उतारी। यमराज ने खुश होकर अपनी बहन को उपहार दिए और वरदान दिया कि इस दिन जो भाई बहन के घर जाकर उसे उपहार देगा और बहन भाई का स्वागत करेगी तो उन्हें कभी यमराज ( मृत्यु ) का भय नहीं सताएगा। उस दिन क्योंकि कार्तिक मास की द्वितीय तिथि थी इस लिए इसको यम-द्वितीया भी कहा जाता है।
२.महाबलि-लक्ष्मी:- बच्चो, मैंने आपको "ओणम" की कहानी सुनाई थी कि कैसे विष्णु भगवान ने वामन रूप बना कर महाबलि राजा को पराजित किया था और उसे पाताल लोक भेज दिया था, बाद में उसे वर्ष में एक बार वापिस आने का वरदान भी दिया था। महाबलि ने एक वरदान और भी भगवान विष्णु से माँगा था कि वह पाताल लोक में जाकर हर घर में पहरेदार के रूप में हमेशा विराजमान रहे। भगवान विष्णु क्योंकि महाबलि को वरदान दे चुके थे, इस लिए उन्हें पाताल लोक में जाकर रहना पडा। यह बात श्री विष्णु पत्नी लक्ष्मी जी भला कैसे सह जाती? उन्होंने अपने पति को आज़ाद कराने का उपाय सोचा। श्रीलक्ष्मी जी एक गरीब औरत के रूप में महाबलि के पास गई और उसे अपना भाई बनाने का आग्रह किया। महाबलि ने उसे बहन स्वीकार कर लिया। लक्ष्मी जी ने महाबलि को टीका लगा कर एक बहन की तरह पूजा की और फिर जब महाबलि ने उनसे कुछ माँगने के लिए कहा तो लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु जी को आज़ाद करने का वरदान माँग लिया
३.श्री कृष्ण-सुभद्रा:- बच्चो, अभी मैंने दो दिन पहले आपको नरकासुर वध की कहानी भी सुनाई थी कि कैसे श्री-कृष्ण जी ने नरकासुर राक्षस का वध किया था। नरकासुर का वध करने के पश्चात श्री-कृष्ण जी सीधे अपनी बहन सुभद्रा के घर गए थे और उनकी बहन ने भाई को टीका लगाकर मिठाई और फूलों से खूब स्वागत किया था तब से यह त्योहार भैया दूज के रूप में मनाया जाता है.
४. बच्चो, इसको केवल हिन्दु धर्म में ही नहीं बल्कि जैन धर्म में भी मनाया जाता है दीवाली की जानकारी देते हुए आपको महावीर स्वामी जी के बारे में भी बताया था जब महावीर स्वामी घर-बार त्याग निर्वाण प्राप्ति हेतु निकल पड़े तो उनके भाई राजा नन्दीवर्धन जो कि अपने भाई महावीर स्वामी से बेहद प्यार करते थी, बहुत उदास हो उठे और अपने प्यारे भाई की कमी उनको खलने लगी तब उनकी बहन सुदर्शना ने अपने भाई को सहारा दिया था ।
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